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वास्तविकता और सत्ता
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'वास्तविकता' तत्त्वमीमांसा की सर्वप्रमुख धारणा है। यह एक अत्यन्त व्यापक शब्द है और इसके अन्तर्गत जीवन के व्यापक दर्शन तथा विश्व के प्रति एक विशिष्ट दृष्टिकोण का समावेश होता है। इसीलिए जब किसी दर्शन का अध्ययन किया जाता है तो उसका तत्त्वमीमांसीय स्वरूप एक 'विश्व-दृष्टिकोण' का द्योतक माना जाता है, और इसमें आसपास के जीवन के प्रति निर्धारित दृष्टिकोण भी समाहित रहता है।
जैन दर्शन के अनुसार, चेतना तथा द्रव्य के ज्ञान से ही वास्तविकता का समुचित परिचय हो सकता है, क्योंकि इन दोनों का ही अस्तित्व है। इन दोनों में से एक को छोड़ने का अर्थ होगा वास्तविकता का अपूरा परिचय या अधूरा चित्र प्राप्त करना।
जैन दर्शन का वास्तववाद वास्तविकता तथा सत्ता में भेद नहीं करता। इसके अनुसार वास्तविकता सत् है और सत्ता वास्तविक है। वास्तविकता के चेतन तथा अचेतन (जीव तथा अजीव) दोनों ही तत्त्वों का अस्तित्व मानकर इन्हें जो प्रधानता दी गयी वह इस तथ्य की द्योतक है कि व्यक्तिगत आत्मा, द्रव्य, आकाश, काल और विश्व में पाये जाने वाले गति एवं स्थिति के तत्त्व, ये सब वास्तविक हैं। ये सब सत् वास्तविकता कहलाते हैं और इन्हें क्रमशः नाम दिये गये हैं : जीव, पुद्गल, आकाश, काल, धर्म तथा अधर्म । इनमें अन्तिम पांच को अजीब कहा गया है। 1. देखिये, "भगवती-सूत्र',xxv. 2-4 2. 'भगवती-सूत्र' के एक पूर्व-प्रकरण (XIII,44481) में यह मत देखने को मिलता
है कि विश्व पांच प्रकार के द्रव्यों से बना है। यह मत स्वयं महावीर का माना जाता है। कहते हैं कि अपने एक शिष्य गौतम के प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा : गीतम, विश्व पांच देशव्याप्त द्रव्यों से बना है। ये है-गति तस्व, स्थिति तस्व, आकार, मात्मा और द्रव्य ।" उसी अन्य में 'काल' को अलग स्थान दिया गया; इससे पता चलता है कि महावीर के समय भी दो विचार-धाराए विद्यमान थीं। वास्तविकता के बारे में ये दो प्रकार के उल्लेख इस माने में भी महत्त्व के है कि प्रथम पांच को वहां देशव्याप्त माना गया, वहां छठे को मन्याप्त ।