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________________ 102 जैन दर्शन यानी, क्या एक बार मनुष्य जन्म का स्तर प्राप्त कर लेने के बाद फिर विकास के दौर में मनुष्य जन्म से नीचे का स्तर प्राप्त होने का कोई खतरा नहीं है ? एक सामान्य व्यक्ति भी इस सवाल का नकारात्मक उत्तर देगा। कहा जायेगा कि, जो मादमी बुरा काम करता है उसका उसे दण्ड मिलेगा ही। ऐसा व्यक्ति मानवजन्म के स्तर में बना रहेगा और संभवत: उसका नीचे की ओर पतन नहीं होगा। परन्तु सामान्य व्यक्ति कहेगा कि, कर्म सिद्धांत के अनुसार, यदि किसी मनुष्य के कार्य मनुष्य जन्म के योग्य नहीं है, मनुष्य से निम्न कोटि के हैं, तो उस मनुष्य को मानवीय स्तर से नीचे ढकेल देना चाहिए। जैनों के मत को स्पष्ट करने के लिए मेहता थियोसोफिस्टों के मत का उल्लेख करते हैं : चेतना के एक बार मानव स्तर पर पहुंच जाने के बाद फिर उसका पतन नहीं होता। दुष्कर्म यदि उद्धार की सीमा को लांघ जाता है, तो उस सत्ता का ही पूर्ण विनाश हो जा सकता है और मनुष्य महामानव हो सकता है, परन्तु वह मनुष्य से कम नहीं होगा । मेहता कहते हैं कि यह मत विकासवाद से प्रभावित है और जैन परम्परा में थियोसोफिस्टों के ऐसे मत को कभी भी स्वीकार नहीं किया गया है। वह लिखते हैं : "जैन मत है कि मृत्यु के बाद जीवात्मा पशुओं और पेड़-पौधों में भी जा सकती है। यह स्वर्ग में भी जा सकती है और वहां कुछ समय के लिए रह सकती है। इसलिए जैन मत है कि जीवात्माएं पीछे की ओर भी जा सकती हैं। जैन मतानुसार जीवात्माओं की वृद्धि एवं विकास चेतना के निम्न स्तर से उच्च स्तर में नहीं होता। जीवात्माओं के विपरीतगमन के बारे में जो जैन मत हैं, वह हिन्दू मत से बड़ा मेल खाता है। कई उपनिषदों में विपरीतगमन की संभावना के उल्लेख मिलते हैं : __ "जो इन दो पथों को नहीं जानते थे कीट-पतंग, मक्खी, मच्छर बनते __ "जो यहां अच्छा कर्म करते हैं, उन्हें अच्छा जन्म मिलेगा । जो यहां बुरा कर्म करेंगे उन्हें बुरा जन्म मिलेगा, जैसे, कुत्तं का, सूअर का !" "कुछ व्यक्तियों को अपने कर्मों के अनुसार और मन की प्रवृत्ति के अनुसार पुनर्जन्म मिलता है। कुछ व्यक्तियों का पतन होकर वे पेड़ बन जाते हैं।" "वह अपने कर्मों के अनुसार इस धरती पर किसी-न-किसी जन्म में कीट, 3. 'बैन साइकोलॉजी', पु. 176-77 4. बहदारण्यक उपनिषद्', VI. 2.16 5. 'छान्दोग्य उपनिषद्',V. 10.7 6. 'कठोपनिषद्', II. 2.7
SR No.010094
Book TitleJain Darshan ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorS Gopalan, Gunakar Mule
PublisherWaili Eastern Ltd Delhi
Publication Year
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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