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103 टिड्या, मछली, पक्षी, और, सूबर, सर्प, बाब, तथा अन्य कोई प्राणी बना।"
इस संदर्भ में यह ध्यान में रखना जरूरी है कि जीव या चेतन सत्ताया जीवात्मा की चार अवस्थाएं हैं : नरक की अवस्था, पशुको अवस्था, मनुष्य की अवस्था और स्वर्ग की अवस्था । जीव शब्द विश्व में व्याप्त चेतन सत्ता का चोतक है और यह केवल मनुष्य में ही नहीं पाया जाता। इससे हमें पुनर्जन्म के मैन सिद्धांत के बारे में जानकारी मिलती है, क्योंकि यह इस तथ्य की ओर निर्देश करती है कि,चेतन सत्ता जिन अवस्थाओं में पायी जाती है उनमें से मनुष्य अवस्था केवल एक है; इसलिए यह कल्पना करने का हमें कोई अधिकार नहीं है कि एक बार मानवीय अवस्था के प्राप्त हो जाने के बाद अतिमानव और परिपूर्णता का स्तर, जिसमें जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति मिल जाती है, अपने-आप प्राप्त होता है । भगवती सूत्र में जीवात्मा की इन चार अवस्थानों का उल्लेख है और उन कर्मों की भी जानकारी है जिनके कारण जीवात्मा का इन अवस्थाओं में प्रवेश होता है। जिसके कारण मनुष्य को नारकीय जीवन मिलता है, वह कर्म है। अत्यधिक धन जमा करना, उपद्रवी कार्यों में उलझना, प्राणियों के पंचेन्द्रियों को काटना, मांस खाना, इत्यादि । जिसके कारण पशु, वनस्पति तथा इसी प्रकार का जीवन मिलता है, वह कर्म है दूसरों को धोखा देना, कपट रचना, झूठ बोलना, इत्यादि । जिसके कारण मानव जीवन मिलता है, वह कर्म है सरल स्वभाव, नम्र व्यक्तित्व, दयाभाव, करुणा, इत्यादि । जिसके कारण स्वर्ग का सुख मिलता है, वह कर्म है तपस्वी का आचरण, व्रतों का पालन, इत्यादि।
जीवात्मा के विपरीतगमन के जैन सिद्धान्त के बारे में महत्त्व की बात यह है कि इससे उत्तरदायित्व सम्बन्धी नैतिकता के लिए आधार प्राप्त होता है। सामान्य रूप से कर्म सिद्धांत, इसके पुनर्जन्म के उपसिद्धांत सहित सामान्यजनों की दृष्टि में भी, व्यक्तिगत उत्तरदायित्व के लिए नैतिक अधार प्रदान करता है। जैन सिद्धांत में इस मान्यता को स्वीकार किया गया है, परन्तु साथ ही इस बात पर भी विशेष जोर दिया गया है कि, यदि मनुष्य जिम्मेवार प्राणी है, तो वह केवल मानव जीवन में किये जाने वाले उन अच्छे या बुरे कमों के लिए ही जिम्मेवार नहीं है जिनका फल उसे उसी या बाद के मानव जीवन में भोगना पड़ता है। सामान्य मानवीय स्तर से ऊपर उठाकर परिपूर्ण मनुष्य बनाने में उसकी उत्तरदायित्व की भावना यदि सचमुच ही महत्व की भूमिका अदा करती है, तो जब वह कोई गलत काम करता है, पशुवत् कर्म करता है, तो इस भावना का उपयोग किया जा सकता है। मानवीय स्तर से निम्न कोटि के कर्म करके 7. 'कोपीतकी बाह्मण', I. 1.6 . 8. VIII. 9.41