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जैन दर्शन
गुणों का आधार हैं, स्वयं सिद्ध है, क्योंकि इसके गुण भी स्वयं सिद्ध हैं, जैसे कि घट की स्थिति में हैं। गुणों की सिद्धि से आधार की भी सिद्धि होती है। " 18 जीवात्मा जिसके गुण संदेह के परे हैं न केवल गुणों के अस्तित्व अपितु आधार के aftara की ओर भी निर्देश करते हैं। पदार्थ और इसके गुणों के बीच अन्योन्याश्रय का सम्बन्ध होता है, इसलिए दूसरे के बारे में सोचे बिना हम एक के बारे मे विचार नहीं कर सकते । इसी प्रकार, दो सम्बन्धित वस्तुओं में से एक का अस्तित्व सिद्ध होने से दूसरे का भी सिद्ध हो जाता है ।
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कभी-कभी हम देखते हैं कि शरीर के मौजूद होने पर भी, जैसे कि गहरी नीद, मृत्यु आदि में, तो भी संवेदन, बोध, स्मृति आदि जैसे गुण अनुपस्थित रहते हैं ।" इससे जाहिर होता है कि शरीर का मानसिक क्रियाओं के साथ आवश्यक सम्बन्ध नहीं है, शरीर के अतिरिक्त भी कोई सत्ता है और वही जीवात्मा है ।
अन्त में, शरीर द्रव्य (पुद्गल) से बना होने के कारण यह स्वयं चेतना का जनक नहीं हो सकता । यदि चेतना शरीर के विविध अंगों का गुण नहीं है, तो शरीर में पायी जानेवाली चेतना अवश्य ही आत्मन् अथवा जीवात्मा का गुण होनी चाहिए, और इस आत्मन् का निवास शरीर में होता है। शरीर में आत्मन् के निवास से चेतना का उद्भव होता है और आत्मन् के न रहने पर चेतना नष्ट हो जाती है। इससे स्पष्ट होता है कि चेतना आत्मन् अथवा जीवात्मा की प्रमुख विशेषता है।
इस प्रकार, हम जीवात्मा के जैन सिद्धांत को चेतना के रूप में समझ सकते हैं। यह भी कहा जा सकता है कि जीवात्मा के विवेचन से जैनों के चेतना सम्बन्धी मत को भी समझा जा सकता है।
13. वही 1558
14. देखिये, एम० एल० मेहता, 'जैन साइकोलॉजी', पृ० 38