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मात्य है। स्वयं भगवान महावीर ही विरोधी मतको प्रस्तुत करते हैं : "जीवात्मा का अस्तित्व संदिग्ध है, क्योंकि किसी भी जानेन्द्रिय से प्रत्यक्षतः इसका बोध नहीं होता। जीवात्मा की स्थिति परमाणुओं की तरह नहीं है, क्योंकि परमाणु यद्यपि अदृश्य होते हैं, फिर भी समूह रूप में उन्हें देखा जा सकता है । अनुमान से भी जीवात्मा का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता, क्योंकि बिना किसी बोध के अनुमान भी संभव नहीं है । धर्मग्रन्थों के आधार पर भी जीवात्मा का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता, क्योंकि धर्मग्रन्थों का ज्ञान, अनुमिति से भिन्न नहीं होता। यदि वह मान भी लिया जाय कि धर्मग्रन्मों से हमें जीवात्मा के अस्तित्व को समझने में सहायता मिलती है, तो धर्मग्रन्थों में ऐसा कोई उल्लेख नहीं मिलता जिससे पता चले कि किसी मे जीवात्मा को प्रत्यक्ष रूप से देखा है । धर्मग्रन्यों के बारे में एक और दिक्कत यह है कि धर्मग्रन्यों में ही परस्पर विरोधी बातें देखने को मिलती है। सादृश्य के आधार पर भी जीवात्मा के अस्तित्व को सिद्ध नहीं किया जा सकता, क्योंकि विश्व में ऐसी एक भी सत्ता नही है जो लेशमात्र भी जीवात्मा के सदृश हो। इस प्रकार, किसी भी प्रमाण से जीवात्मा की सत्ता सिद्ध नहीं होती; इसलिए निष्कर्ष निकलता है कि जीवात्मा का कोई अस्तित्व नहीं है।"10 ___ महावीर अपने मत की रक्षा इन शब्दों में करते हैं : "हे इन्द्रभूति ! जीवात्मा का प्रत्यक्ष ज्ञान तुम्हें भी हो सकता है । इसके बारे में संदेह मादि से युक्त तुम्हारा ज्ञान ही जीवात्मा है । जो स्वयं तुम्हारे अनुभव से सिद्ध होता है, उसको सिद्ध करने के लिए किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती। सुख, दुःख आदि के अस्तित्व के लिए किसी प्रमाण की जरूरत नहीं होती।" और "अहंप्रत्यय-जैसे, 'मैंने किया,' 'मैं करता हूं', तथा 'मैं करूंगा' में 'मैं' की अनुभूति-से जीवात्मा का प्रत्यक्ष बोध हो सकता है ।"" महावीर का यह कहना कि जीवात्मा के अस्तित्व के लिए किसी प्रमाण की जरूरत नहीं है, एक मूलभूत प्रश्न का उत्तर देने से कतराना नहीं है, क्योंकि वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि संशय के होने का अर्थ ही है कि कोई संशयकर्ता भी है । वे पूछते हैं : "जिसके बारे में संदेह है उस वस्तु का यदि सचमुच ही अस्तित्व नहीं है तो किसे संदेह हो सकता है कि मेरा अस्तित्व है या मेरा अस्तित्व नहीं है ? हे गौतम (इन्द्रभूति) ! जब तुम्हें स्वयं अपनी जीवात्मा के बारे में संदेह है, तो फिर कौन-सी चीज संदेह-रहित हो सकती है?"
महावीर कहते हैं कि किसी वस्तु के अस्तित्व की स्वयं-सिद्धता उसके गुणों की स्वयं-सिबता से स्पष्ट होती है। उनका मत है : "जीवात्मा, जो कि इसके 10. 'विशेषावश्यक भाष्य', 1550-53 11. वही, 1554-56 12. वही, 1557