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________________ 98 जैन दर्शन और इसकी खोजबीन सत्ववेत्ता द्वारा होनी चाहिए, फिर भी मनोवैज्ञानिक का भी यह कर्तव्य है कि वह इसकी प्रकृति का अध्ययन करे और इसके अस्तित्व को सिद्ध करे, क्योंकि चेतनता मनोविज्ञान की केन्द्रीय धारणा है और इसका शान सीधे जीवात्मा के अस्तित्व से सम्बन्धित होता है। प्राचीन भारत के दार्शनिकों की मानव व्यक्तित्व के विविध आयामों के बारे में जो जानकारी थी उससे भी उन्हें पता चला कि मनुष्य के मनोभावों का ही विश्लेषण करना पर्याप्त नहीं है। अत: यह माना गया था कि तात्त्विक और मानसिक विश्लेषण इस प्रकार नहीं होने चाहिए कि मानो वे एक-दूसरे से पूर्णतः असम्बन्धित हों। भारतीय चिन्तन में मनुष्य के प्रति यह जो सामान्य दृष्टिकोण दिखाई देता है, उसमें जैन दार्शनिक अपवाद नहीं थे। विभिन्न मनो-विषय, जो चेतनता के व्यंजक होते हैं, आधुनिक मनोविज्ञान में सक्रिय भाव' माने गये हैं और एक ठोस शक्ति--आत्मन् या जीवात्मा के अस्तित्व के द्योतक हैं। आत्मन् द्रव्य-रहित होता है, क्योंकि इसकी क्रियाएं स्वनिर्धारित और स्वेच्छानुरूप होती हैं । यदि यह द्रव्य से बना होता तो इसकी क्रियाएं बाहर से निर्धारित हुई होती और यह अभौतिक चिंतन-क्रियाओं के लिए समर्थ न होता। इसलिए यह माना गया है कि आत्मन् या जीवात्मा प्रकृति में वास्तविक और अभौतिक दोनों ही है । यहां यह जानना उपयोगी होगा कि अमरीकी दार्शनिक विलियम जेम्स के मतानुसार अभौतिक आत्मन् की धारणा को अस्वीकार नहीं किया जा सकता । वह लिखते हैं : "...जीवात्मा के बारे में यह मान्यता कि यह किसी रहस्यमय तरीके से मस्तिष्क के भावों से प्रभावित होती है और अपने चेतन अनुराग से उनका पालन करती है, मुझे अब तक के तकों में सबसे कम कमजोर प्रतीत होती है।" __ जैन ग्रन्थ विशेषावश्यक भाष्य में जीवात्मा के अस्तित्व के बारे में विशद विवेचन किया गया है । इसमें इन्द्रभूति उस विरोधी मत का प्रवक्ता माना गया है जो जीवात्मा के अस्तित्व में विश्वास नहीं करता और महावीर उठायी गयी आपत्तियों का उत्तर देते हैं। जैसा कि अधिकांश भारतीय दर्शनों के प्रन्थों में देखने को मिलता है, इस जैन ग्रन्थ में भी विरोधी पक्ष के मत को पहले प्रस्तुत किया गया है और फिर स्वपक्ष उन सभी तकों का व्यवस्थित रूप से खण्डन करता 8. जेम्स वार्ड अपने ग्रन्थ 'साइकोलाजिकल प्रिंसिपल', ए.370 में 'आन्तरिक शामया 'स्वचेतना' के बारे में लिखते हैं। "सभी वास्तविक अनुभूतियों को, चाहे वे कितनी भी सरल क्यो न हों, मावश्यक शर्त है विषय तथा कहानी हित्व के ज्ञान का अंतिम क्रम । अतः अनुभव के क्रम में यह प्रथम है। अनुभव के विषय को ही हम शुद्ध मात्मन् कहते है। 9. वही, प्रथम बण,.181
SR No.010094
Book TitleJain Darshan ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorS Gopalan, Gunakar Mule
PublisherWaili Eastern Ltd Delhi
Publication Year
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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