________________
आत्मन्
का निर्माता होता है और उसका आनंद भी लूटता है । उसी प्रकार, व्यावहारिक दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि लौकिक जीवात्मा वस्तुओं का कर्ता है, जैसे भवन का निर्माण करना और वस्तुओं को भोगना ।"" इस संदर्भ में जानना दिलचस्प होगा कि विलियम जेम्स प्रयोगसिद्ध जीवात्मा और शुद्ध जीवात्मा में भेद करते हैं । उनके मतानुसार प्रयोगसिद्ध जीवात्मा "चेतनता, मनोभावों तथा सद्भावों के समूह का नाम है । परन्तु शुद्ध जीवात्मा को प्रयोगसिद्ध जीवात्मा से काफी भिन्न माना गया है। शुद्ध जीवात्मा "सोचती है, विचारक है। यह स्थायी है और दार्शनिक इसे ही जीवात्मा या परम आत्मा कहते हैं ।'
*
जैन दार्शनिकों को इस बात का अंदाजा था कि उनके इस मत पर आपत्ति उठायी जायगी कि, सजीव वस्तु में चेतनता एक विशिष्ट चीज है, यानी सजीव सत्ता का ऐसा वर्णन अस्तित्व, उत्पत्ति, विनाश तथा स्थायित्व जैसी विशेषताओं के साथ मेल नही खाता । इस आपत्ति का उत्तर देने के लिए वे परिभाषा और वर्णन में भेद करते हैं । परिभाषा में वस्तु में पाये जानेवाले भेदों की ओर निर्देश किया जाता है, जब कि वर्णन में संपूर्ण वस्तु का विचार होता है और इसके घटकों के बारे में सूक्ष्म विचार किया जाता है.....
तत्वार्थ सूत्र के अनुसार, जीवित सत्ता की खास विशेषता यह है कि, यह ज्ञानशक्ति (उपयोग ) ' के लिए एक आधार है और यह ज्ञानशक्ति चेतनता की सीमित मात्र में केवल अभिव्यक्ति है। जैन दर्शन में जो दो प्रकार के ज्ञान-भेद - निराकार उपयोग और साकार उपयोग--माने गये हैं वे चेतनता के मात्र अपूर्ण प्रक्षेपण हैं । केवल पूर्ण निराकार उपयोग और पूर्ण साकार उपयोग में ही चेतनता की पूर्ण रूप से अभिव्यक्ति होती है । जीवित सत्ता की क्षमता केवल पूर्ण निराकार उपयोग और पूर्ण साकार उपयोग तक ही सीमित नहीं होती, इसका विस्तार पूर्ण परमसुख तथा असीम शक्ति तक भी होता है। चेतनता की शुद्धता को चार प्रकार के कर्मों से क्षति पहुंचती है-तर्क - अवरोधक कर्म, बुद्धि-अवरोधक कर्म, भ्रांतिजनक कर्म और और शक्ति-अवरोधक कर्म । चूंकि अन्य भारतीय दर्शनों (चार्वाक दर्शन को छोड़कर) में भी यह स्वीकार किया गया है कि मानव जीवन की विशेषता पूर्णता की ओर आगे बढ़ते जाने में है, तो जैनों का यह मत हमारी समझ में आता है कि जीवित सत्ता में नात्मन् का प्रकटीकरण केवल आंशिक रूप से होता है ।
raft 'आत्मन्' या 'जीवात्मा' को तात्विक अमूर्तता माना जा सकता है।
4. वही 27 समयसार, 124
5. प्रिन्सिपल्स ऑफ साइकोलॉजी, प्रथम खण्ड, पृ० 292
6. देखिये, 'तस्वार्थ-सूत्र', V, 29
7. *, 11. 8
97