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आत्मन्
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जनों की आत्मा सम्बन्धी धारणा को पहचान एवं परिवर्तन रूप में पदार्थ की धारणा से आसानी से समझा जा सकता है। मनुष्य के विभिन्न मानसिक अनुभव एक ऐसी वस्तु की ओर निर्देश करते हैं जो प्रयोग है, स्थिर सता है जो बदलते रूपों को अर्थ तथा महत्त्व प्रदान करती है। यही जीवात्मा या आत्मन है। जनों की आत्मा सम्बन्धी धारणा में और बौद्धों की धारणा में स्पष्ट अन्तर है। बदलते रूपों के तथ्य के आधार पर बौद्ध अपने इस सिद्धान्त को सिद्ध करते हैं कि 'आत्मन' अनुभवों के एक पिटारे के अलावा और कुछ नहीं है। किन्तु इसी तथ्य के आधार पर जैन अपने इस मत को सिद्ध करते हैं कि, ऐसी कोई स्थिर सत्ता अवश्य होनी चाहिए जिसके ही कारण बदलते रूपों को हम बदलते हुए देखते हैं।
आत्मन् की प्रमुख विशेषता चेतना है। चेतना ही वह विशेषता है जो जीवित को निर्जीव से अलग करती है; और जैनों को, सिद्धान्त रूप से, यह स्वीकार करने में कोई कठिनाई नहीं है कि "गहन निद्रा की अवस्था भी चेतनारहित नहीं होती, क्योकि यदि हम यह नहीं स्वीकार करते तो शांत एवं महरी नींद के उस सुखद अनुभव को असंभव माना जायगा जिसे हम जागने पर स्मरण करते हैं।"
चेतनता का सम्बन्ध आत्मन् के विभिन्न रूपों और उनके अपने-अपने कार्यों • से है। इसीलिए हमें जीवात्मा के लिए अनेक नाम देखने को मिलते हैं : "प्रमात,
स्वास्य निर्वासिन्, कर्ता, मोक्ता, विवृत्तिमान, स्वसंवेदन-संसिक; और वह जिसकी प्रकृति पृथ्वी तथा अन्य तत्त्वों से भिन्न है।"" चेतनता के तीन रूप-- जानना, अनुभव करना और भोगना-जो जीवात्मा के उपर्युक्त विवेचन से जाहिर हैं, एक अन्य जैन ग्रन्थ में भी वर्णित हैं। जीवात्मा का अद्भुत वर्णन भी देखने को मिलता है। "जीवात्मा प्रभु है, कर्ता है, भोक्ता है, देहमान है, फिर भी अकायिक है, और कर्म से सम्बन्धित भी पाया जाता है। कुंभकार घट
1. रेखिये, एम. एल. मेहता, 'जैन साइकोलॉजी', पु.31 2. पायावतार',31 3. पंचास्तिकावसार', 38