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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व
दोनों प्रकार की इन्द्रियों के सहयोग से प्राणी इन्द्रिय-ज्ञान का उपयोग
करते हैं। स्व-नियमन
जीव-स्वयं चालित है।
किन्तु संचालक- निरपेक्ष है।
स्वयं चालित का अर्थ पर सहयोग निरपेक्ष नहीं, जीव की प्रतीति उसी के उत्थान, बल, वीर्य, पुरुष" । उत्थान आदि शरीर उत्पन्न हैं। शरीर जीव
कार- पराक्रम से होती है द्वारा निष्पन्न है। क्रम इस प्रकार बनता है :
जीवप्रभव शरीर,
शरीरप्रभव वीर्य,
वीर्यप्रभव योग ( मन, वाणी और कर्म ) ८३ |
सचात्मक शक्ति है। क्रियात्मक शक्ति है। होती है ८७ ।
वीर्यदो प्रकार का होता है- (१) लब्धि वीर्य (२) करणवीर्य । लब्धि-वीर्य उसकी दृष्टि से सब जीव सवीर्य होते हैं। करण वीर्य यह जीव और शरीर दोनों के सहयोग से उत्पन्न
जीव में सक्रियता होती है, इसलिए वह पौद्गलिक कर्म का संग्रह या स्वीकरण करता है। पौद्गलिक कर्म का संग्रहण करता है, इसलिए उससे प्रभावित होता है ।
कर्तृत्व और फल भोक्तृत्व एक ही शृंखला के दो सिरे हैं। कतृत्व स्वयं का और फल भोक्तृत्व के लिए दूसरी सत्ता का नियमन—ऐसी स्थिति नहीं बनती ।
फल- प्राप्ति इच्छा - नियंत्रित नहीं किन्तु क्रिया नियंत्रित है। हिंसा, असत्य यदि क्रिया के द्वारा कर्म-पुद्गलों का संचय कर जीव भारी बन जाते हैं | इनकी विरक्ति करने वाला जीव कर्म-पुद्गलों का संचय नहीं करता, इसलिए: वह भारी नहीं बनता ।
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गुरुकर्मा जीव
जीव कर्म के भार से जितना अधिक भारी होता है, वह उतनी ही अधिक निम्नगति में उत्पन्न होता है और हल्का ऊर्ध्वगति में इच्छा न होने पर भी अधोगति में जावेगा । कर्म- पुद्गलों को उसे कहाँ ले जाना है—यह ज्ञान नहीं होता । किन्तु पर भव योग्य श्रायुष्य कर्म- पुद्गलों