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जैन दर्शन के मौलिक तत्व का जो संग्रह हुआ होता है, वह पकते ही अपनी क्रिया प्रारम्भ कर देता है। पहले जीवन यानि वर्तमान आयुष्य के कर्म-परमाणुत्री की क्रिया समाप्त होते ही अगले आयुष्य के कर्म-पुद्गल अपनी क्रिया प्रारम्भ कर देते हैं। दो
आयुष्य के कर्म-पुद्गल जीव को एक साथ प्रभावित नहीं करते । वे पुद्गल जिस स्थान के उपयुक्त बने हुए होते हैं, उसी स्थान पर जीव को घसीट ले जाते हैं। उन पुद्गलों की गति उनकी रासायनिक क्रिया [ रस-बंध या अनुभाव बन्ध] के अनुरूप होती है। जीब उनसे बद्ध होता है, इसलिए उसे भी वहीं जाना पड़ता है। इस प्रकार पुनरावर्तन एक जन्म से दूसरे जन्म में गति और आगति स्व-नियमन से ही होती है।