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जैन दर्शन के मौलिक तत्व :
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ag: सामयिकी' गति होती है। एक समय अधोगतीं विदिशा से दिशा में पहुँचने में, दूसरा समय भस नाड़ी में प्रवेश करने में, तीसरा समय ऊर्ध्वगमन में और चौथा समय असनाड़ी से निकल उस पार स्थावर नाड़ी गव उत्पत्तिस्थान तक पहुंचने में लगता है । श्रात्मा स्थूल शरीर के अभाव में भी सूक्ष्म शरीर द्वारा गति करती है और मृत्यु के बाद वह दूसरे स्थूल शरीर में प्रवेश नहीं करती। किन्तु स्वयं उसका निर्माण करती है। तथा संसार अवस्था में वह सूक्ष्म शरीर-मुक्त कभी नहीं होती । अतएव पुनर्जन्म की प्रक्रिया में कोई बाधा नहीं श्राती ।
जन्म व्युत्क्रम और इन्द्रिय :--
आत्मा का एक जन्म से दूसरे जन्म में उत्पन्न होना संक्रान्तिकाल है। उसमें आत्मा की ज्ञानात्मक स्थिति कैसी रहती है । इस पर हमें कुछ विचार करना है । अन्तराल - गति में श्रात्मा के स्थूल शरीर नहीं होता। उसके अभाव में आँख, कान, नाक आदि इन्द्रियां भी नहीं होती। वैसी स्थिति में जीव का जीवत्व कैसे टिका रहे। कम से कम एक इन्द्रिय की ज्ञानमात्रा तो प्राणी के लिए अनिवार्य है। जिसमें यह नहीं होती, वह प्राणी भी नहीं होता । इस समस्या को शास्त्रकारों ने स्याद्वाद के आधार पर सुलझाया है ।
"भगवन् ! एक जन्म से दूसरे जन्म में व्युत्क्रम्यमाण जीव स-इन्द्रिय होता है या श्रन्-इन्द्रिय ४? इसका उत्तर देते हुए भगवान् महावीर ने कहा'गौतम ! द्रव्येन्द्रिय की अपेक्षा जीव अन-इन्द्रिय व्युत्क्रान्त होता है और लब्धीन्द्रिय की अपेक्षा स-इन्द्रिय । "
आत्मा में शानेन्द्रिय की शक्ति अन्तरालगति में भी होती है। त्वचा, नेत्र आदि सहायक इन्द्रियां नहीं होतीं । उसे स्व-संवेदन का अनुभव होता हैकिन्तु सहायक इन्द्रियों के अभाव में इन्द्रिय शक्ति का उपयोग नहीं होता । - सहायक इन्त्रियों का निर्माण स्थूल शरीर रचना के समय इन्द्रिय- ज्ञान की शक्ति के अनुपात पर होता है। एक इन्द्रिय की योग्यताबाले प्राणी की शरीररचना में त्वचा के सिवाय और इन्द्रियों की आकृतियां नहीं बनतीं । दीन्द्रिय यदि जातियों में क्रमशः रसन, प्राण, चहुं और भोत्र की रचना होती है।