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________________ ४१२j जैन दर्शन के मौलिक तत्व ५६-अनुमागः तेषामेव कर्मप्रदेशानां संवेद्यमानताविषयः रसः वद्रूपं कर्म अनुभाग-कर्म। -भग १० ११४४० ५७-जाणियव्यं ण जाणाति; जाणिउ कामे ण याणातिजाणित्ता विष याणाति; उच्छन्न नाणी या वि भवति-प्रशा० २३।१।२१२ ५८-भग० ७१० ५६- दव्यं, खेतं, कालो, भवीय भावो य हेयवो पंच हेतु। समासेणुसदो जायइ सव्वाण पगईण ॥ -पं० सं० ६०-प्रज्ञा० पृ० २३ ६१- जीव खोटा खोटा कर्त्तव्य करै, जब पुद्गल लागे ताम । ते उदय आयो दुःख उपजे, ते आप कमाया काम ॥ पाप उदय थी दुःख हुबे, जब कोई मत करज्यो रोष । किया जिसा फल भोगवे, पुद्गलनों सू दोष-न०प० ६२-पर० प्र० वृ०-२५३ पृ०-१६४ ६३-पुरुषा रा५३ पृ० १६४ ६४-पुरुषा-२११ ६५- जो पर दबम्मि सुहं असुदं रागेण कुणदि जदि भाव । सो मग चंस्ति भट्ठो पर चरिम चरौ हवदि जीवो ॥ पासबदि जेण पुण्णं पावं वा अप्पणो भावेण । सो तेण पर चस्ति हदि ति जिणा परवति ॥ जो सव्य संग मुकोडऽणण्णयण अप्पाण' सहावेण । जाणदि पस्सदि णियदं सो सम चरियं चरदि जीवो ॥ जस्स हि दये गुमत्तं पर दबम्मि विजदे रागो। सो ण विजाणादि समयं सम्गस्स सव्वागम धरो वि.॥ . पंचा० १६४-१६५-१६६,१७५ ६६- पुरणेण होई विहबो, विहवेणमो, मएष महमोहो। महमोहेण य पार्ष वा पुगण मन्ह मा होऊ ॥ २६०. . इदं. पूषों पुण्यं मेवामेवरखत्रयाराधनारहितेन दृष्टभुतानुभूतमोया
SR No.010093
Book TitleJain Darshan ke Maulik Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Chhaganlal Shastri
PublisherMotilal Bengani Charitable Trust Calcutta
Publication Year1990
Total Pages543
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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