SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 410
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४१०१ . जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व २५-बन्धिधारी मुनि के वैकिय शरीर और देवता के उत्तर वैक्रिय-शरीर में से, चांद, नक्षत्र और वारा मंडल से तथा रख और औषधियों व लकड़ियों से निकलने वाला शीत-प्रकाश उद्योत होता है। २६-यहाँ गति का अर्थ है चलना। आकाश के बिना कहीं भी गति नहीं हो सकती। फिर भी गति-नाम-कर्म, जो नरक आदि पर्याय परिणति का हेतु है, से भिन्न करने के लिए "विहायस्" शब्द का प्रयोग किया है। २७-सूक्ष्म शरीर चक्षु द्वारा देखे नहीं जा सकते। ये किसी को रोक नहीं सकते और न किसीसे रुकते भी हैं। इन पर प्रहार नहीं किया जा सकता। सूक्ष्म शरीर पांच स्थावर काय के ही होता है। ये जीव समूचे लोक में व्याप्त होते हैं। २८-चादर शरीर एक-एक चक्षु-गृहीत नहीं होते। इनका समुदाय चक्षु ग्राह्य हो जाता है। सूक्ष्म शरीरों का समुदाय भी चतु-ग्राह्य नहीं होता। २९-शिर लगाने से प्रसन्नता होती है, पैर लगाने से रोष पाता है। इसका आधार यह हो सकता है। ३०-क) भग०८९ (ख) मणवयकाय जोया जीवपएसाण फंदण-विसेमा । मोहोदएणाजुत्ता विजुदा विय पासवा होति ।। -स्वा० का०५८ ३१-क)जीवेण कयस्स... -प्रशा० २३।१।२६२ (ख) समिय दुक्खे दुक्खी दुक्खाण मेवं भाव अणुपरियहर-- . -प्राचा० २।६।१०५ ३२-भग०६) ३३-भग०६ ३४-दुःखनिमित्तत्वाद् दुःखं कर्म, तद्वान् जीवो दुःखी -भग ३.५२६६ ३५-भग० ७१।२६६.
SR No.010093
Book TitleJain Darshan ke Maulik Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Chhaganlal Shastri
PublisherMotilal Bengani Charitable Trust Calcutta
Publication Year1990
Total Pages543
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy