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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्वं
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(४) रूप-मद, (५) तप-मद, (६) श्रुत-मद, ( ७ ) लाभ
मद, (८) ऐश्वर्य-मद,
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( ८ ) अन्तराय ( १ ) ज्ञानान्तराय, (२) लाभान्तराय, (३) भोगान्तराव, (४) उपभोगान्तराय, ( ५ ) वीर्यान्तराय । मग
१३- भग० १/२/३४
१४ - स्था० ४११/२५१
१५ - प्रशा० २३३११२६०
१६- भग० १८३
१७- सम० ४, स्था० ४/४/३६२, ४१२/२६६
१८ -- बन्धनम् - निर्मार्पणम्
-स्था० ८५६६
१६- प्रशा० प० २३
२० स्था० २|४|१०५
२१- शरीर संघातन नाम कर्म के उदय से शरीर के पुद्गल सन्निहित, एकत्रित या व्यवस्थित होते हैं और शरीर बन्धन - नाम-कर्म के उदय से वे परस्पर बंध जाते हैं।
२२ -- संहनन का अर्थ है अस्थि-रचना विशेष - प्र०वृ० २३
२३ - जीव की सहज गति सम श्रेणी में होती है। जीव का उत्पत्तिस्थान सम श्रेणी में हो तो 'श्रानुपूर्वी नाम कर्म' का उदय नहीं होता। इसका उदय जन्म-स्थान विश्रेणी में स्थित हो तभी होता है-वह गति में ही होता है। इसकी प्रेरणा से सम श्रेणी से गति करने वाला जीव अपने विभेणी - स्थित जन्म-स्थान में पहुँच जाता है ।
२४ - 'श्रातप - नाम- कर्म' का उदय सूर्य-मंडल के एकेन्द्रिय जीवों के ही होता है। इन जीवों के शरीर शीत हैं। केवल उनमें से निकलने वाली तापरश्मियां ही उष्ण होती हैं।
afrontfe जीवों के शरीर से जो उष्ण प्रकाश फैलता है, वह श्रावणनाम कर्म के उदय से नहीं किन्तु उष्ण-स्पर्श नाम-कर्म तथा लोहित वर्ण नाम कर्म के उदय से फैलता है।