SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 379
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३७] जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व मुकाव होता है। वह सम पर आवरण डाल देता है। सता शक्ति या अधिकार-विस्तार की भावना के पीछे यही तत्त्व सक्रिय होता है। स्वत्व की मर्यादा आन्तरिक क्षेत्र में व्यक्ति की अनुभूतियां व अन्तर् का श्रालोक ही उसका ___ बाहरी सम्बन्धों में स्व की मर्यादा जटिल बनती है । इसरो के स्वत्व या अधिकारों का हरण स्व नहीं-यह अस्पष्ट नहीं है। संघर्ष या अशान्ति का मूल दूसरों के स्व का अपहरण ही है। युग-भावना के साथ-साथ 'स्व' की मर्यादा बदलती भी है। उसे समझने वाला मर्यादित हो जाता है। वह संघर्ष की चिनगारी नहीं उछालता। रूदिपरक लोग 'स्व' की शाश्वत-स्थिति से चिपके बैठे रहते हैं। वे अशान्ति पैदा करते हैं। बाहरी सम्बन्धों में स्त्र की मर्यादा शाश्वत या स्थिर हो भी नहीं सकती। इसलिए भावना-परिवर्तन के साथ-साथ स्वयं को बदलना भी जरूरी हो जाता है। बाहर से सिमट कर अधिकारों में पाना शान्ति का सर्व प्रधान सूत्र है। उसमें खतरा है ही नहीं। इस जन-जागरण के युग में उपनिवेशवाद, सामन्तवाद और एकाधिकारवाद मिटते जा रहे हैं। विचारशील व्यक्ति और राष्ट्र दूसरों के स्वत्व से बने अपने विशाल रूप को छोड़ अपने रूप में सिकुड़ते जा रहे हैं। यह सामञ्जस्य की रेखा है। वर्ग-विग्रह और अन्तर्राष्ट्रीय विग्रह की समापन-रेखा भी यही है। इसीके प्राधार पर कहा जा सकता है कि श्राज का विश्व व्यावहारिक समन्वय की दिशा में प्रगति कर रहा है। निष्कर्ष शान्ति का आधार-व्यवस्था है। ज्यवस्था का आधार-सह-अस्तित्व है। सह-अस्तित्व का आधार-समन्वय है। समन्वय का आधार-सत्य है। सत्य का आधार-अमय है। काभव का प्राधार अहिंसा है।
SR No.010093
Book TitleJain Darshan ke Maulik Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Chhaganlal Shastri
PublisherMotilal Bengani Charitable Trust Calcutta
Publication Year1990
Total Pages543
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy