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जैन दर्शन के मौलिक तत्व
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अहिंसा का आधार अपरिग्रह है ।
अपरिग्रह का आधार - संयम है ।
असंयम से संग्रह, संग्रह से हिंसा, हिंसा से भय, भय से असत्य, असत्य से संघर्ष, संघर्ष से अधिकार- हरण, अधिकार-हरण से अव्यवस्था, अव्यवस्था से अशान्ति होती है।
विरोध का अर्थ विभिन्नता है किन्तु संघर्ष नहीं ।
१ - सार्वभौम - दर्शन - अमुक दृष्टिकोण से यह यूँ ही है यह अस्तित्व की नीति है ।
२ एकदेशीय या तटस्थ दृष्टिकोण-यह यूँ है—यह सापेक्ष नीति है ५९ । ३ - श्राग्रही दृष्टिकोण - यह यूँ ही है - यह निरपेक्ष नीति है । अपने या अपने प्रिय व्यक्तियों के लिए दूसरों के स्वत्व को हड़पने का यक्ष करना पक्षपाती नीति है
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आक्रामक को सहयोग देना पक्षपाती नीति है । दूसरों की प्रभुसत्ता में 1 हस्तक्षेप करना पक्षपाती नीति है। उनमें कुछ भी सामर्थ्य नहीं है ( नास्तिसर्वत्र वीर्यवाद ), यह एकान्तवाद है ।
हममें सब सामर्थ्य है- ( अस्ति सर्वत्र वीर्यवाद ) यह एकान्तवाद है । दूसरों के 'स्वत्व' को अपना स्वत्व न बनाना संयम है । यही सहअस्तित्व का श्राधार I
दूसरों के 'स्वत्व' पर अपना अधिकार करना श्रसंयम या श्राक्रमण हैपारस्परिक विरोध और ध्वंस का हेतु यही है ।
अपरिवर्तित सत्य की दृष्टि से परिवर्तन अवस्तु है, परिवर्तित सत्य की दृष्टि से अपरिवर्तन वस्तु है, यह अपनी-अपनी विषय-मर्यादा है किन्तु अपरिवर्तन और परिवर्तन दोनों निरपेक्ष नहीं है।
अपरिवर्तन की दृष्टि से मूल्यांकन करते समय परिवर्तन गौण अवश्य होगा किन्तु उसे सर्वथा भूल ही नहीं जाना चाहिए ।
परिवर्तन की दृष्टि से मूल्यांकन करते समय अपरिवर्तन गौय अवश्य होगा
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किन्तु उसे सर्वया भूल ही नहीं जाना चाहिए।