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जैन दर्शन के मौलिक तत्व
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स्थायी तत्व - जनता का तिरस्कार है । जहाँ तिरस्कार है, वहाँ निरपेक्षता है। जहाँ निरपेक्षता है, वहाँ असत्य है । असत्य की भूमिका पर सह-अस्तित्व का सिद्धान्त पनप नहीं सकता । सह-अस्तित्व का आधार - संयम
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भगवान् ने कहा- सत्य का बल संजोकर सबके साथ मैत्री साधो । सत्य के बिना मैत्री नहीं | मैत्री के बिना सह-अस्तित्व का विकास नहीं ।
सत्य का अर्थ है --- संयम । संयम से वैर-विरोध मिटता है, मैत्री विकास पाती है । सह-अस्तित्व चमक उठता है ! असंयम से बैर बढ़ता है 4" } मैत्री का स्वर क्षीण हो जाता है। स्व के अस्तित्व और पर के नास्तित्व से वस्तु की स्वतंत्र सत्ता बनती है। इसीलिए स्व और पर दोनों एक साथ रह सकते हैं।
अगर सहानवस्थान व परस्पर - परिहार स्थिति जैसा विरोध व्यापक होता तो न स्व और पर ये दो मिलते और न सह-अस्तित्व का प्रश्न ही खड़ा होता । सह-अस्तित्व का सिद्धान्त राजनयिकों ने भी समझा है। राष्ट्रों के आपसी सम्बन्ध का श्राधार जो कूटनीति था, वह बदलने लगा है। उसका स्थान सहअस्तित्व ने लिया है। अब समस्याओं का समाधान इसी को आधार मान खोजा जाने लगा है। किन्तु अभी एक मंजिल और पार करनी है ।
दूसरों के स्वत्व को श्रात्मसात् करने की भावना त्यागे बिना सह-अस्तित्व का सिद्धान्त सफल नहीं होता । स्याद्वाद की भाषा में स्वयं की सत्ता जैसे पदार्थ का गुण है, वैसे ही दूसरे पदार्थों की सत्ता भी उसका गुण है। स्वापेक्षा से सत्ता और परापेक्षा से श्रसत्ता- ये दोनों गुण पदार्थ की स्वतन्त्र व्यवस्था के हेतु हैं। स्वापेक्षया सत्ता जैसे पदार्थ या गुण है, वैसे ही परापेक्षया असता उसका गुण नहीं होता तो द्वैत होता ही नहीं । द्वैत का आधार स्व-गुण-सत्ता और पर-गुण- श्रसत्ता का सहावस्थान है।
सह-अस्तित्व में विरोध तभी आता है जब एक व्यक्ति, जाति या राष्ट्र दूसरे व्यक्ति, जाति या राष्ट्र के स्वत्व को हड़प जाना चाहते हैं । यह श्राक्रामक नीति ही सह-अस्तित्व की बाधा है। अपने से भिन्न वस्तु के स्वत्व का निर्णय करना सरल कार्य नहीं है। स्व के आरोप में एक विचित्र प्रकार का मानसिक