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________________ जैन दर्शन के मौलिक तस्व -ये अपनी-अपनी सीमा में सस । ६-दूसरे पक्ष से सापेक्ष है तभी नय है। ७-सरे पक्ष को सत्ता में हस्तक्षेप, अवहेलना व आक्रमण करते हैं तब ये दुर्नय बन जाते हैं। ८-सब नय परस्पर में विरोधी है-पूर्ण साम्य नहीं है किन्त सापेक्ष एकत्व की कड़ी से जुड़े हुए हैं, इसलिए वे अविरोधी सत्य के साधक ५३ । क्या संयुक्त राष्ट्र संघ के निर्माण का वह आधारभूत सत्य नहीं है, जहाँ विरोधी राष्ट्र भी एकत्रित होकर विरोध का परिहार करने का यन करते हैं। ६. एकान्त अविरोध और एकान्त विरोध से पदार्थ-व्यवस्था नहीं होती। व्यवस्था की व्याख्या अविरोध और विरोध की सापेक्षता द्वारा की जा सकती है५३, १०. जितने एकान्तवाद या निरपेक्षवाद है, वे सब दोषों से भरे पड़े हैं। ११. ये परस्पर ध्वंसी है-एक दूसरे का विनाश करने वाले हैं। १२. स्यादाद और नयवाद में अनाक्रमण, अहस्तक्षेप, स्वमर्यादा का अनतिक्रमण, सापेक्षता-ये सामञ्जस्यकारक सिद्धान्त हैं। इनका व्यावहारिक उपयोग भी असन्तुलन को मिटाने वाला है। साम्प्रदायिक सापेक्षता धार्मिक क्षेत्र भी सम्प्रदायों की विविधता के कारण असामञ्जस्य की रंगभूमि बना हुआ है। समन्वय का पहला प्रयोग वहाँ होना चाहिए। समन्वय का आधार ही अहिंसा है। अहिंसा ही धर्म है। धर्म का ध्वंसक कीटाणु है-साम्प्रदायिक भावेश। प्राचार्य श्री तुलसी द्वारा सन् १९५४ में बम्बई में प्रस्तुत साम्प्रदायिक एकता के पांच व्रत इस अभिनिवेश के नियंत्रण का सरल आधार प्रस्तुत करते हैं। वे इस प्रकार हैं:१. मण्डनात्मक नीति बरती जाए। अपनी मान्यता का प्रतिपादन किया जाए। दूसरों पर मौखिक या लिखित आक्षेप न किये जाए। ...
SR No.010093
Book TitleJain Darshan ke Maulik Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Chhaganlal Shastri
PublisherMotilal Bengani Charitable Trust Calcutta
Publication Year1990
Total Pages543
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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