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________________ ३६६ जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व यह व्यक्ति और समष्टि की सापेक्ष नीति जैन दर्शन का नय है। इसके अनुसार समष्टि सापेक्ष व्यक्ति और व्यक्ति सापेक्ष समष्टि-दोनों सत्य हैं समष्टि-निरपेक्ष व्यक्ति और व्यक्ति-निरपेक्ष-समष्टि - दोनों मिथ्या हैं । व्यवहार-सत्य नयवाद ध्रुव सत्य की अपरिहार्य व्याख्या है। यह जितना दार्शनिक सत्य है, उतना ही व्यवहार-सत्य है । हमारा जीवन वैयक्तिक भी है और सामुदायिक भी। इन दोनों कक्षाओं में नय की अर्हता है। सापेक्ष नीति से व्यवहार में सामञ्जस्य श्राता है। उसका परिणाम है मैत्री, शान्ति और व्यवस्था । निरपेक्ष नीति अवहेलना, तिरस्कार और घृणा पैदा करती है। परिवार, जाति, गांव, राज्य, राष्ट्र और विश्व – ये क्रमिक विकासशील संगठन है। संगठन का अर्थ है सापेक्षता । सापेक्षता का नियम जोदी के लिए है, वही अन्तर्राष्ट्रीय जगत् के लिए है । एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र की अवहेलना कर अपना प्रभुत्व साधता है, वहाँ समंजसता खड़ी हो जाती है। उसका परिणाम है— कटुता, संघर्ष श्रीर अशान्ति । निरपेक्षता के पाँच रूप बनते हैं : १ - वैयक्तिक, २- जातीय, ३ – सामाजिक, ४ - राष्ट्रीय, ५ – अन्तर्राष्ट्रीय । इसके परिणाम है-वर्ग-भेद, अलगाव, अव्यवस्था, संघर्ष, शक्ति-क्षय, युद्ध और अशान्ति } सापेक्षता के रूप भी पाँच हैं : १ - वैयक्तिक, २ -- जातीय, ३ – सामाजिक, ४ - राष्ट्रीय ५ अन्तर् राष्ट्रीय । इसके परिणाम हैं -- समता प्रधान - जीवन, सामीप्य, व्यवस्था, स्नेह, शक्तिसंवर्धन, मैत्री और शान्ति । व्यक्ति और समुदाय व्यक्ति अकेला ही नहीं आता। वह बन्धन के बीज साथ लिए श्राता है । अपने हाथों उन्हें सींच विशाल वृक्ष बना लेता है। वहीं निकुल उसके लिए
SR No.010093
Book TitleJain Darshan ke Maulik Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Chhaganlal Shastri
PublisherMotilal Bengani Charitable Trust Calcutta
Publication Year1990
Total Pages543
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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