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________________ जैन दर्शन के मौलिक तस्व 1३६० बन्धन- गृह बन जाता है। बन्धन लादे जाते हैं, यह दिखाऊ सत्य है। टिकाऊ सत्य यह है कि बन्धन स्वयं विकसित किए जाते हैं। 1 उन्हीं के द्वारा वैयक्तिकता समुदाय से जुड़कर सीमित हो जाती है। वैयक्तिकता और सामुदायिकता के बीच भेद-रेखा खींचना सरल कार्य नहीं है । व्यक्ति-व्यक्ति ही है । सब स्थितियों में वह व्यक्ति ही रहता है। जन्म, मौत और अनुभूति का क्षेत्र व्यक्ति की वैयक्तिकता है । सामुदायिकता की व्याख्या पारस्परिकता के द्वारा ही की जा सकती है। दो या अनेक की जो पारस्परिकता है, वही समुदाय है पारस्परिकता की सीमा से इधर जो कुछ भी है, वह वैयक्तिकता है । व्यक्ति का श्रान्तरिक क्षेत्र वैयक्तिक है, वह उससे जितना बाहर जाता है उतना ही सामुदायिक बनता चलता है । व्यक्ति को समाज - निरपेक्ष और समाज को व्यक्ति-निरपेक्ष मानना एकान्त पार्थक्यवादी नीति है। इससे दोनों की स्थिति असमञ्जस बनती है। समन्वयवादी नीति के अनुसार व्यक्ति और समाज की स्थिति सापेक्ष है । कहीं व्यक्ति गौण बनता है, समाज मुख्य और कहीं समाज गौण बनता है और व्यक्ति मुख्य । इस स्थिति में स्नेह का प्रादुर्भाव होता है । श्राचार्य अमृतचन्द्र ने इसे मथनी के रूपक में चित्रित किया है । मन्थन के समय एक हाथ आगे श्राता है, दुसरा पीछे चला जाता है। दूसरा आगे आता है, पहला पीछे सरक जाता है । इस सापेक्ष मुख्यमुख्य भाव से स्नेह मिलता है। एकान्त अग्रह से खिंचाव बढ़ता है । अन्तर्राष्ट्रीय-निरपेक्षता बहुता और अल्पता, व्यक्ति और समूह के ऐकान्तिक प्राग्रह पर असन्तुलन बढ़ता है, सामञ्जस्य की कड़ी टूट जाती है। safare मनुष्यों का अधितम हित- यह जो सामाजिक उपयोगिता का सिद्धान्त है, वह निरपेक्ष नीति पर आधारित है। इसीके आधार पर हिटलर ने यहूदियों पर मनमाना अत्याचार किया ।
SR No.010093
Book TitleJain Darshan ke Maulik Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Chhaganlal Shastri
PublisherMotilal Bengani Charitable Trust Calcutta
Publication Year1990
Total Pages543
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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