SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 362
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन दर्शन के मौलिक लव (३६१ " तथ्य और घातक, शासितव्य और शासक में समता है किन्तु एकत्व नहीं है। कर्ता के साथ किया दौड़ती है और उसका परिणाम पीछे लगा पाता है। सरल चल से देखता है, वह दूसरों को मारने में अपनी मौत देखता है, इसरों को शासिस और अधीन करने में अपनी परवशता देखना है, दूसरों को सताने में अपना सन्ताप देखता है। एक शम्ब में किया की प्रतिक्रिया (अनुसंवेदन ) देखता है, इसलिए वह किसी को भी मारना व अधीन करना नहीं चाहता। शस्त्रीकरण (पाप) से वे ही बच सकते हैं, जो गम्भीरता (अध्यात्मदृष्टि) पूर्वक शस्त्र प्रयोग में अपना अहित देखते हैं। __ जो खेदश है, वे ही अशस्त्र का मर्म जानते हैं, जो अशस्त्र का मर्म जानते है, वे ही खेदश ५ ___ जो दूसरों की आशंका, भय या लाज से शस्त्रीकरण नहीं करते, वे तत्कालदृष्टि (अन्-अध्यात्म-दृष्टि-बहिर-दृष्टि ) हैं। वे समय आने पर शस्त्रीकरण से बच नहीं सकते । अशस्त्र की उपासना जो सर्वदा और सर्वथा प्रशस्त्र है, वही परमात्मा है। प्रशस्त्रीकरण की और प्रगति ही उसकी उपासना है। प्रात्माएं अनन्त हैं। वे किसी एक ही विशाल-वृक्ष के अवयव मात्र नहीं है। सबकी स्वतन्त्र सत्ता है। जो व्यक्ति दूसरी अात्माओं की प्रभु-सत्ता में हस्तक्षेप करते हैं, वे परमात्मा की उपासना नहीं कर सकते। भगवान् ने कहा-सर्व-जीव-समता का आचरण ही सत्य है। इसे केन्द्रबिन्दु मान चलने वाले ही परमात्मा की उपासना कर सकते है। मित्र और शत्रु मगवान् ने कहा-पुरुष ! बाहर याद रहा है! अन्दर आ और देख दही तेरा मित्र है"। श्री पुरुष ! तू ही तेरा मित्र और तू ही तेरा शत्रु है जो किसी का भी अमित्र नहीं, वही अपने आपका मित्र है। जो किसी . एक का भी अमित्र है, यह सबका मित्र-आत्मा की सर्वसम-सचा का
SR No.010093
Book TitleJain Darshan ke Maulik Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Chhaganlal Shastri
PublisherMotilal Bengani Charitable Trust Calcutta
Publication Year1990
Total Pages543
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy