________________
३६०) जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व शस्त्र प्रयोक्ता
जो प्रमत्त है, वे शस्त्र का प्रयोग करते हैं। जो काम-भोग के प्रयी है, वे शस्त्र का प्रयोग करते हैं। भगवान् ने कहा-अपने या पर के लिए या विना प्रयोजन ही जो शस्त्र का प्रयोग करते हैं, वे विपदा के भँवर में फँस जाते है। अविवेक और विवेक _ भगवान् ने कहा-शस्त्रीकरण अविवेक (अपरिशा) है। इसके कटु परिणामों को जान कर जो इसे छोड़ देता है, वह विवेक (परिश) है। निःशस्त्रीकरण का अधिकारी __ भगवान् ने कहा-गौतम ! मैं पहले कहाँ था ! कहाँ से आया हूँ ! पहले कौन था आगे क्या होऊँगा ! यह संज्ञान जिसे नहीं होता, वह अनात्मवादी है।
अनात्मवादी निःशस्त्रीकरण नहीं कर सकता' ८ । इन दिशाओं और अनुदिशाओं में सञ्चारी तत्त्व जो है, वह मैं ही हूँ (सोऽहम् ), इसे जाननेवाला आत्मा को जानता है, लोक को जानता है, कर्म को जानता है, क्रिया को जानता है।
आत्मा को जानने वाला ही निःशस्त्रीकरण कर सकता है। शस्त्र प्रयोग से दूर
जो अपनी पीर जानता है, वही दूसरों की पीर जान सकता है । जो दूसरों की पीर जानता है, वही अपनी पीर जान सकता है।
सुख दुःख की अनुभूति व्यक्ति-व्यकि की अपनी होती है। प्रात्म-तुला की यथार्थ अनुभूति हुए बिना प्रत्येक जीव सभी जीवों के 'शस्त्र' (हिंसक) होते हैं ।
'अशस्त्र' (अहिंसक ) वे ही हो सकते हैं, जिन्हें साम्य और अमेद में कोई भेद न जान पड़े। भगवान्ने अहिंसा के उप-शिखर से पुकारा - पुरुष । देख-"जिसे तू मारना चाहता है, वह तू ही है, जिस पर तू शासन करना चाहता है, वह तू ही है। जिसे तू कष्ट देना चाहता है, वह तू ही है, जिसे तू अधीन करना चाहता है, वह तू ही है जिसे तू सताना चाहता है, वह दही