SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 343
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन दर्शन के मौलिक तल 10 हैं, उनकी एक वाक्यता दिखलाने के लिए आयु के मेद के अनुसार प्राममो की व्यवस्था स्मृतिकारों ने की है। समाज व्यवस्था के विचार से "कर्म करो" यह आवश्यक है। मोचसाधना के विचार से "कर्म छोड़ों -- यह आवश्यक है। पहली दृष्टि से गृहस्थाश्रम की महिमा गाई गई। दूसरी दृष्टि से संन्यास को सर्वश्रेष्ठ कहा गया प्रवजेच परं स्थातुं पारिवाज्यमनुत्तमम् - दोनों स्थितियों को एक ही दृष्टि से देखने पर विरोध प्राता है। दोनों को भिन्न दृष्टिकोण से देखा जाए तो दोनों का अपना-अपना क्षेत्र है, टकर की कोई बात ही नहीं । संन्यास-आश्रम के विरोध में जो वाक्य है, वे सम्भवतः उसकी ओर अधिक झुकाव होने के कारण लिखे गए। संन्यास की ओर अधिक मुकाव होना समाज व्यवस्था की दृष्टि से स्मृतिकारों को नहीं रुचा। इसलिए उन्होंने ऋण चुकाने के बाद ही संसार-त्याग का, संन्यास लेने का विधान किया। गृहस्थाश्रम का कर्तव्य पूरा किये बिना जो श्रमण बनता है, उसका जीवन थोथा और दुःखमय है-यह महाभारत की घोषणा भी उसी कोटि का प्रतिकारात्मक भाव है। किन्तु यह समाज-व्यवस्था का विरोध अन्तःकरण की भावना को रोक नहीं सका। ___ श्रमण परम्परा में श्रमण बनने का मानदण्ड यही-'संवेग' रहा है। जिन में वैराग्य का पूर्णोदय न हो, उनके लिए गृहवास है ही। वे घर में रहकर भी अपनी क्षमता के अनुसार मोक्ष की ओर आगे बढ़ सकते हैं। इस समग्र दृष्टिकोण से विचार किया जाए तथा प्रायु की दृष्टि से विचार किया जाए तो आश्रम-व्यवस्था का यांत्रिक स्वरूप हृदयंगम नहीं होता। आज के लिए तो ७५ वर्ष की आयु के बाद संन्यासी होना प्रायिक अपवाद ही हो सकता है, सामान्य विधि नहीं । अब रही कर्म की बात । खान-पान से लेकर कायिक, वाचिक और मानसिक सारी प्रवृत्तियाँ कर्म है। लोकमान्य के अनुसार जीना मरना भी कर्म है । __ गृहस्थ के लिए भी कुछ कर्म निषिध माने गए हैं। गृहस्थ के लिए विहित कर्म भी संन्यासी के लिए निषिद्ध माने गए । संक्षेप में "सर्वारम्भ
SR No.010093
Book TitleJain Darshan ke Maulik Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Chhaganlal Shastri
PublisherMotilal Bengani Charitable Trust Calcutta
Publication Year1990
Total Pages543
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy