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________________ ३४० ] जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व लिए अप्रमाद वीर्य या अकर्म-वीर्य का विधान है। यह अकर्मण्यता नहीं किन्तु कर्म का शोधन है। कर्म का शोधन करते-करते कर्म-मुक्त हो जाना, यही है श्रमण परम्परा के अनुसार मुक्ति का क्रम । वैदिक परम्परा को भी यह अमान्य I नहीं है। यदि उसे यह श्रमान्य होता तो वे वैदिक ऋषि वानप्रस्थ और संन्यासआश्रम को क्यों अपनाते । इन दोनों में गृहस्थ जीवन सम्बन्धी कर्मों की विमुखता बढ़ती है। गृहस्थाश्रम से साध्य की साधना पूर्ण होती प्रतीत नहीं हुई, इसीलिए अगले दो आश्रमों की उपादेयता लगी और उन्हें अपनाया गया । जिसे बाहरी चिह्न बदल कर अपने चारों ओर अस्वाभाविक वातावरण उत्पन्न करना कहा जाता है, वह सबके लिए समान है । श्रमण और संन्यासी दोनों ने ऐसा किया है । ब्रह्मचर्य की सुरक्षा के नियमों को कृत्रिमता का बाना पहनाया जाए तो इस कृत्रिमता से कोई भी परम्परा नहीं बची है । जिस किसी भी परम्परा में संसार-त्याग को आदर्श माना है, उसमें संसार से दूर रहने की भी शिक्षा दी है । मुक्ति का अर्थ ही संसार से विरक्ति है । संसार का मतलब गाँव या 1 1 अरण्य नहीं, गृहस्थ और संन्यासी का वेष नहीं, स्त्री और पुरुष नहीं । संसार का मतलब है -- जन्म-मरण की परम्परा और उसका कारण । वह है मोह | मोह का स्रोत ऊपर भी है, नीचे भी है और सामने भी है--"उ सोया, हे सोया, तिरयं सोय” ( आचारांग ) । मोह-रहित व्यक्ति गांव में भी साधना कर सकता है और अरण्य में भी । श्रमण परम्परा कोरे वेष- परिवर्तन को कब महत्त्व देती है । भगवान् ने कहा"वह पास भी नहीं है, दूर भी नहीं है भोगी भी नहीं है, त्यागी भी नहीं है । भोग छोड़ा श्रासक्ति नहीं छोड़ी - वह न भोगी है न त्यागी । भोगी इसलिए नहीं कि वह भोग नहीं भोगता । त्यागी इसलिए नहीं कि वह भोग की 1 बासना त्याग नहीं सका। पराधीन होकर भोग का त्याग करने वाला त्यागी या श्रमण नहीं है। त्यागी या श्रमण वह है जो स्वाधीन भावना पूर्वक स्वाधीन भोग से दूर रहता है ४ । यही है भ्रमण का श्रामण्य । श्रम व्यवस्था भौत नहीं है, किन्तु स्मार्त है। लोकमान्य तिलक के अनुसार- 'कर्म कर' और 'कर्म छोड़' वेद की ऐसी जो दो प्रकार की श्राशाद
SR No.010093
Book TitleJain Darshan ke Maulik Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Chhaganlal Shastri
PublisherMotilal Bengani Charitable Trust Calcutta
Publication Year1990
Total Pages543
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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