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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व
(१) नचिकेता ने सूर्यवंशी शाखा के राजा वैवस्वत यमके पास आत्मा का रहस्य जाना। ' (२) सनत्कुमार ने नारद से पूछा- बतलानो तुमने क्या पढ़ा है ? नारद बोले-भगवन् ! मुझे ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और चौथा अथर्ववेद याद है, (लोसिवा) इतिहास पुराण रूप पाँचवाँ वेद......श्रादि-हे भगवन् ! कहा मैं जानता हूँ। भगवन् ! मैं केवल मन्त्र-वेत्ता ही हूँ, आत्म-वेत्ता नहीं हूँ। अमरकुमार श्रात्मा की एक-एक भूमिका को स्पष्ट करते हुए नारद को परमात्मा की भूमिका तक ले गए,-यो वै भूमा तत्सुखं नाल्पे सुखमस्ति'। जहाँ कुछ और नहीं देखता, कुछ और नहीं सुनता तथा कुछ और नहीं जानता वह भूमा है। किन्तु जहाँ और कुछ देखता है, कुछ और सुनता है एवं कुछ
और जानता है, वह अल्प है। जो भूमा है, वही अमृत है और जो अल्प है, वही मर्त्य है-'यो वै भूमा तदमृतमथ यदल्पं तन्मयम् ।
(३) प्राचीनशाल आदि महा गृहस्थ और महा श्रोत्रिय मिले और परस्पर विचार करने लगे कि हमारा आत्मा कौन है और ब्रह्म क्या है ?'को न आत्मा किं ब्रह्मेति', वे वैश्वानर अात्मा को जानने के लिए अरुण पुत्र उद्दालक के पास गए। उसे अपनी अक्षमता का अनुभव था। वह उन सबको कैकेय अश्वपति के पास ले गया। राजा ने उन्हें धन देना चाहा । उन मुनियों ने कहा- हम धन लेने नहीं आये हैं। आप वैश्वानर-आत्मा को जानते हैं, इसीलिए वही हमें बतलाइए। फिर राजाने उन्हें वैश्वानर-आत्मा का उपदेश दिया। काशी नरेश अजातशत्रु ने गाय को विज्ञानमय पुरुष का तत्व समझाया।
(४) पांचाल के राजा प्रवाहण जैवलि ने गौतम ऋषि से कहा--गौतम ! तू जिस विद्या को लेना चाहता है, वह विद्या तुझसे पहले ब्राह्मणों को प्राप्त नहीं होती थी। इसलिए सम्पूर्ण लोकों में क्षत्रियों का ही अनुशासन होता रहा है। प्रवाहण ने आत्मा की गति और प्रागति के बारे में पूछा। वह विषय बहुत ही अज्ञात रहा है, इसीलिए आचारांग के. प्रारम्भ में कहा गया है-"कुछ लोग नहीं जानते थे कि मेरी आत्मा का पुनर्जन्म होगा