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________________ जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व आत्म-दर्शन में बाधा डालता है और चारित्र-मोह प्रारम-उपलब्धि में। आत्मसाक्षात्कार के लिये संयम किया जाए, तप तपा जाए । संयम से मोह का प्रवेश . रोका जा सकता है, और तपसे संचित मोह का व्यूह तोड़ा जा सकता है। अकुव्यश्री नवं नत्थि, कम्मं नाम बियाणा । सूत्र २१५७ भव कोडि संचियं कम्म, तवसा निजरिजई। उत्त० ॥ ३१३ ऋषियों ने कहा-आत्मा तप और ब्रह्मचर्य द्वारा लभ्य है : सत्येन लभ्यस्तपसा खेष प्रारमा सम्यग् ज्ञानेन ब्रह्मचर्येण नित्यम् । अन्तः शरीरे ज्योतिर्मयो हि शुभी यं पश्यन्ति यतयः क्षीणदोषाः ॥ ऋग्वेद का एक ऋषि आत्म-शान की तीव्र जिज्ञासा से कहता है-"मैं नहीं जानता-मैं कौन हूँ अथवा कैसा हूँ'५ ? वैदिक संस्कृति का जबतक श्रमण-संस्कृति से सम्पर्क नहीं हुआ, तबतक उसमें आश्रम दो ही ये-ब्रह्मचर्य और गृहस्थ । सामाजिक या राष्ट्रीय जीवन की सुख-समृद्धि के लिए इतना ही पर्याप्त माना जाता था। ___ जब क्षत्रिय राजाओं से ब्राह्मण ऋषियों को आत्मा और पुनर्जन्म का बोधबीज मिला, तबसे अाश्रम-परम्परा का विकास हुआ, वे क्रमशः तीन और चार बने। वेद-संहिता और ब्राह्मणों में संन्यास-अाश्रम आवश्यक कहीं नहीं कहा गया है, उल्टा जैमिनि ने वेदों का यही स्पष्ट मत बतलाया है कि गृहस्थाश्रम में रहने से ही मोक्ष मिलता है। उनका यह कथन कुछ निराधार भी नहीं है। क्योंकि कर्मकाण्ड के इस प्राचीन मार्ग को गौण मानने का प्रारम्भ उपनिषदों में ही पहले पहल देखा जाता है। __भमण-परम्परा में क्षत्रियों का प्राधान्य रहा है, और वैविक-परम्परां में ब्राह्मणों का। उपनिषदों में अनेक ऐसे उल्लेख हैं, जिससे पता चलता है कि प्रामण ऋषि-मुनियों ने क्षत्रिय राजाओं से प्रात्म-विद्या सीखी।
SR No.010093
Book TitleJain Darshan ke Maulik Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Chhaganlal Shastri
PublisherMotilal Bengani Charitable Trust Calcutta
Publication Year1990
Total Pages543
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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