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जैन दर्शन के मौलिक तस्व
(१) वाचन, ( २ ) प्रश्न, (३) परिवर्तन, (४) धर्म-कथा-ये चार उसकी अनुप्रेक्षाएं हैं-चिन्त्य विषय है। शुक्र ध्यान के चार प्रकार है :( १ ) भेद- चिन्तन ( पृथक्त्व-वितर्क-स विचार )
(२) श्रमेद - चिन्तन ( एकत्व - वितर्क-विचार )
( ३ ) मन, वाणी और शरीर की प्रवृत्ति का निरोध ( सूक्ष्मक्रियश्रप्रतिपाति )
(४) श्वासोच्छ्वास जैसी सूक्ष्म प्रवृति का निरोधपूर्ण कम्पन-दशा ( समुच्छिन्न क्रिय अनिवृत्ति )
( १ ) विवेक - श्रात्मा और देह के मेद-शान का प्रकर्ष ।
( २ ) व्युत्सर्ग - सर्व - संग परित्याग, (३) अचल उपसर्ग - सहिष्णु ४) सम्मोहये चार उसके लक्षण हैं।
(१) क्षमा, ( २ ) मुक्ति, (३) आर्जव, (४) मृदुता - ये चार उसके श्रालम्बन है।
( १ ) अपाय, ( २ ) अशुभ, (३) अनन्त पुद्गल - परावर्त, (४) वस्तुपरिणमन – ये चार उसकी अनुपेक्षाएं हैं। ये दो ध्यान धर्म और शुक्ल आचरणीय हैं।
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बितर्क का अर्थ श्रुत है । विचार का अर्थ है वस्तु, शब्द और योग का संक्रमण |
ध्येय दृष्टि से वितर्क या श्रुतालम्बन के दो रूप है- ( १ ) पृथक्स्व का चिन्तन - एक द्रव्य के अनेक पर्यायों का चिन्तन । ( २ ) एकत्व का चिन्तन-एक द्रव्य के एक पर्याय का चिन्तन ।
ध्येय संक्रान्ति की दृष्टि से शुक्ल ध्यान के दो रूप बनते हैं - सविचार और अविचार |
( १ ) सविचार ( सकम्प ) में ध्येय वस्तु, उसके वाचक शब्द और योग( मन, वचन और शरीर ) का परिवर्तन होता रहता है ।
(२) अविचार ( अकम्प ) में ध्येय वस्तु, उसके बाचक शब्द और योग का परिवर्तन नहीं होता ।