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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व
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मेद चिन्तन की अपेक्षा अमेद-चिन्तन में और संक्रमण की अपेक्षा, संक्रमण-निरोध में ध्यान अधिक परिपक्व होता है।
धर्म-ध्यान के अधिकारी असंयत, देश-संयत, प्रमत्त-संयत और अप्रमत्तसंयत होते हैं५ ।
शुक्ल-ध्यान-व्यक्ति की दृष्टि से :
(१) पृथक्त्व-वितर्क-सविचार और (२) एकरव-वितर्क-विचार के अधिकारी निवृत्ति बादर, अनिवृत्ति बादर, सूक्ष्म-सम्पराय, उपशान्त-मोह और क्षीण-मोह मुनि होते हैं।
(३) सूक्ष्म-क्रिय-अप्रतिपाति के अधिकारी सयोगी केवली होते हैं।
(४) समुच्छिन्न-क्रिय-अनिवृत्ति के अधिकारी अयोगी केवली होते है। योग की दृष्टि से :
(१) पृथक्त्व-वितर्क-सविचार-तीन योग (मन, वाणी और काय ) वाले व्यक्ति के होता है।
(२) एकत्व-वितर्क-अविचार-तीनों में से किसी एक योग वाले व्यक्ति के होता है।
(३) सूक्ष्म-क्रिय-अप्रतिपाति-काय-योग वाले व्यक्ति के होता है। () समुच्छिन्न-क्रिय-अनिवृत्ति-अयोगी केवली के होता है। गीतम-भगवन् ! व्युत्सर्ग क्या है ?
भगवान्-गौतम ! शरीर, सहयोग, उपकरण और खान-पान का त्याग तथा कषाय, संसार और कर्म का त्याग व्युत्सर्ग है। श्रमण संस्कृति और श्रामण्य
कर्म को छोड़कर मोक्ष पाना और कर्म का शोधन करते-करते मोष पाना-ये दोनों विचारधाराएं यहाँ रही हैं। दोनों का साध्य एक ही है-- "निष्कर्म बन जाना" । मेद सिर्फ प्रक्रिया में है। पहली कर्म के सन्यास की है, इसरी उसके शोधन की। कर्म-संन्यास साध्य की ओर द्रुत गति से जाने का क्रम है और कर्म योग उसकी ओर धीमी गति से आगे बढ़ता है। शौफन. का मतलब संन्यास ही है। कर्म के जितने असत् अंशका संन्यास होता है, उतने ही अंश में वह एब बना है। इस दृष्टि से यह क मास का