________________
३२६]
जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व
अशुद्ध वस्तु का परिहार, कायोत्सर्ग, तपस्या- ये सब पूर्वकृत पाप की विशुद्धि
के हेतु हैं५८ ।
भगवान् ने कहा- गौतम ! विनय, (२) श्रद्धा का विनय,
विनय ।
विनय के सात प्रकार है- ( १ ) ज्ञान का (३) चारित्र का विनय और ( ४ ) मन
अप्रशस्त मन- विनय के बारह प्रकार हैं :—
( १ ) सावध, ( २ ) सक्रिय, (३) कर्कश, (४) कटुक, (५) निष्ठुर, (६) परुष, (७) श्रास्रवकर, (८) छेदकर, (६) मेदकर, (१०) परिताप कर, ( ११ ) उपद्रव कर और ( १२ ) जीव घातक । इन्हें रोकना चाहिए । प्रशस्त मन के बारह प्रकार इनके विपरीत हैं। इनका प्रयोग करना चाहिए ।
(५) वचन - विनय- -मन की भांति अप्रशस्त और प्रशस्त बचन के भी बारह बारह प्रकार हैं ।
(६) काय - विनय - प्रशस्त काय-विनय - श्रनायुक्त ( श्रसावधान ) वृत्ति से चलना, खड़ा रहना, बैठना, सोना, लांघना प्रलांघना, सब इन्द्रिय और शरीर का प्रयोग करना। यह साधक के लिए बर्जित है । प्रशस्त काय विनय - आयुक्त (सावधान) वृत्ति से चलना, यावत् शरीर प्रयोग करनायह साधक के लिए प्रयुज्यमान है। 1
(७) लोकोपचार - विनय के सात प्रकार हैं।
:
( १ ) बड़ों की इच्छा का सम्मान करना, (२) बड़ों का अनुगमन करना, (३) कार्य करना, (४) कृतज्ञ बने रहना, (५) गुरु के चिन्तन की गवेषणा करना, (६) देश-काल का ज्ञान करना और (७) सर्वथा अनुकूल रहना ।
गौतम - भगवन् ! वैयावृत्य क्या है ?
भगवान् गौतम ! वैयावृत्य का अर्थ है -- सेवा करना, संयम को अवलम्बन देना ।
साधक के लिए वैयावृत्य के योग्य दश श्रेणी के व्यक्ति है।
(१) आचार्य, (२) उपाध्याय, (३) चैच-नयासाधक, (४) रोगी,