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निरोध; वित क्रोध, मान माया और लोभ का विमूलीकरण। . (३) योग प्रतिसंलीनता-अकुशल मन, वाणी और शरीर का निरोध;
कुशल मन, वाणी और शरीर का प्रयोग। (४) विविक्त शयन-अासन का सेवन५४ । इसकी तुलना पतञ्जलि के
'प्रत्याहार' से होती है। जैन-प्रक्रिया में प्राणायाम को विशेष महत्त्व नहीं दिया गया है। उसके अनुसार विजातीय-द्रव्य या बालभाव का रेचन और अन्तर भाव में स्थिर-भाव-कुम्भक ही
बास्तविक प्राणायाम है। भगवान् ने कहा-गौतम ! साधक को चाहिए कि वह इस देह को केवल पूर्व-सञ्चित मल पखालने के लिए धारण करे। पहले के पाप का प्रायश्चित्त करने के लिए ही इसे निवाहे। आसक्ति पूर्वक देह का लालन-पालन करना जीवन का लक्ष्य नहीं है। श्रासक्ति बन्धन लाती है। जीवन का लक्ष्य है-- बन्धन-मुक्ति । वह ऊर्ध्वगामी और सुदूर है ५५ ।
भगवान ने कहा-गौतम ! सुख-सुविधा की चाह आसकि लाती है। आसक्ति से चैतन्य मञ्चित हो जाता है । मूर्खा धृष्टता लाती है। श्रृष्ट व्यक्ति विजय का पथ नहीं पा सकता। इसलिए मैने यथाशक्ति काय-क्लेश का विधान किया है।
गौतम ने पूछा भगवन् ! काय-क्लेश क्या है ?
भगवान्-गौतम ! काय-क्लेश के अनेक प्रकार हैं। जैसे-स्थान-स्थिति स्थिर शान्त खड़ा रहना-कायोत्सर्ग। स्थान-स्थिर-शान्त बैठे रहनाप्रासन | उत्कृक-श्रासन, पद्मासन, वीरासन, निषद्या, लकुट शयन, दएडायतये प्रासन है। बार-बार इन्हें करना।
अातापना-शीत-ताप सहना, निर्वस्त्र रहना, शरीर की विभूषा न करना, परिकर्म न करना-यह काय-क्लेश है।
यह अहिंसा-स्थैर्य का साधन है।
भगवान् ने कहा-गौतम ? पालोचना (अपने अधर्माचरण का प्रकाशन) पूर्षकत पाप की विशुद्धि का हेतु हैं। प्रतिकमण-(मेरा दुष्कृत विफल होहब मानापूर्वक माम कर्म ने हडना) पूर्वत पाल की विधि का, हेड है।