________________
जैन दर्शन के मौलिक तत्व
[३१९
शंका उत्पन्न होती है फिर क्रमशः आकांक्षा ( कामना ), विचिकित्सा ( फल के प्रति सन्देह ), द्विविधा, उन्माद और
ब्रह्मचर्य - नाश हो जाता है" ।
इसलिए ब्रह्मचारी को पल-पल सावधान रहना चाहिए। बायु जैसे अमिज्वाला को पार कर जाता है- वैसे ही जागरूक ब्रह्मचारी काम भोग की आसक्ति को पार कर जाता है"
साधना के स्तर
K
धम को आराधना का लक्ष्य है - मोक्ष प्राप्ति । मोक्ष पूर्ण है। पूर्ण की प्राप्ति के लिए साधना की पूर्णता चाहिए। वह एक प्रयक्ष में ही प्राप्त नहीं होती । ज्यों-ज्यों मोह का बन्धन टूटता है, त्यों-त्यों उसका विकास होता है। मोहात्मक बन्धन की तरतमता के आधार पर साधना के अनेक स्तर निश्चित किये हैं 1
गए
(१) सुलभ - बोधि-यह पहला स्तर है । इसमें न तो साधना का शान 1 होता है और न अभ्यास । केवल उसके प्रति एक अज्ञात अनुराग या श्राकर्षण होता है । सुलभ बोधि व्यक्ति निकट भविष्य में साधना का मार्ग पा सकता है।
(२) सम्यग् दृष्टि- यह दूसरा स्तर है। इसमें साधना का अभ्यास नहीं होता किन्तु उसका ज्ञान सम्यग् होता है ।
(३) श्रणुमती - यह तीसरा स्तर है। इसमें साधना का ज्ञान और स्पर्श दोनों होते हैं। अणुवती के लिए चार विश्राम स्थल बताए गए हैं :-- रूपक की भाषा में :
- एक भारवाहक बोझ से दबा जा रहा था । उसे जहाँ पहुँचना था, वह स्थान वहाँ से बहुत दूर था। उसने कुछ दूर पहुँच अपनी गठड़ी बाएं से दाहिने कन्धे पर रख ली ।
ख - थोड़ा आगे बढ़ा और देह-चिन्ता से निवृत्त होने के लिए गठड़ी नीचे रख दी ।
--उसे उठा फिर आगे चला। मार्ग लम्बा था। वजन भी बहुत था । इसलिए उसे एक सार्बजनिक स्थान में विधाम लेने को रुकना पड़ा ।.