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________________ ३१८ ] जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व (१) विभूषा - संयम-शृङ्गार न करना । (१०) विषय - संयम - मनोश शब्दादि इन्द्रिय विषयों तथा मानसिक D संकल्पों से बचना | (११) भेद- चिन्तन - विकार हेतुक प्राणी या वस्तु से अपने को पृथक मानना । (१२) शीत और ताप सहना - ठंडक में खुले वदन रहना, गर्मी में सूर्य का आतप लेना । (१३) सौकुमार्य-त्याग | (१४) राग-द्वेष के विलय का संकल्प करना' I ४१ (१५) गुरु और स्थविर से मार्ग-दर्शन लेना । (१६) अज्ञानी या आसक्त का संग त्याग करना । (१७) स्वाध्याय में लीन रहना । (१८) ध्यान में लीन रहना । (१६) सूत्रार्थ का चिन्तन करना । va (२०) धैर्य रखना, मानसिक चंचलता होने पर निराश न होना ४२ । (२१) शुद्धाहार - निर्दोष और मादक वस्तु वर्जित आहार | (२२) कुशल साथी का सम्पर्क ४ ३ 1 1 (२३) विकार - पूर्ण - सामग्री का प्रदर्शन, अप्रार्थन, श्रचिन्तन, कीर्तन ४४ (२४) काय क्लेश- आसन करना, साज-सज्जा न करना । (२५) ग्रामानुग्राम-विहार- -- एक जगह अधिक न रहना । (२६) रूखा भोजन - लखा श्रहार करना । (२७) अनशन -- यावज्जीवन आहार का परित्याग कर देना ४५ । (२८) विषय की नश्वरता का चिन्तन करना " । (२९) इन्द्रिय का बहिर्मुखी व्यापार न करना *" | (३०) भविष्य दर्शन - भविष्य में होनेवाले विपरिणाम को देखना ४८ । (३१) भोग में रोग का संकल्प करना ४९ ! (३२) श्रप्रमाद - सदा जागरूक रहना--जो व्यक्ति विकार- इतक सामग्री को उम्र मान उसका सेवन करने लगता है, उसे पहले ब्रह्मचर्य में
SR No.010093
Book TitleJain Darshan ke Maulik Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Chhaganlal Shastri
PublisherMotilal Bengani Charitable Trust Calcutta
Publication Year1990
Total Pages543
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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