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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व
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इच्छा परिमाण—ये उनके नाम हैं। महाजतों की स्थिरता के लिए २५ भावना है। प्रत्येक महाव्रत की पाँच-पाँच भावनाएं हैं" ।
इनके द्वारा मन को भावित कर ही महावतों की सम्यक् श्राराधना की जा सकती है।
पाँच महाव्रतों में मैथुन देह से अधिक सम्बन्धित है। इसलिए मैथुनबिरति की साधना के लिए विशिष्ट नियमों की रचना की गई है। ब्रह्मचर्य का साधना-मार्ग
ब्रह्मचर्य भगवान् है " ।
ब्रह्मचर्य सब तपस्याओं में प्रधान है | जिसने ब्रह्मचर्य की आराधना कर ली उसने सब व्रतों को आराध लिया | जो ब्रह्मचर्य से दूर हैं-वे आदि मोक्ष हैं। मुमुक्षु मुक्ति के अग्रगामी है ३४ | ब्रह्मचर्य के भग्न होने पर सारे व्रत टूट जाते हैं 34
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ब्रह्मचर्य जितना श्रेष्ठ है, उतना ही दुष्कर है । इस आसक्ति को तरने वाला महासागर को तर जाता है ३७ ।
कहीं पहले दण्ड, पीछे भोग है, और कहीं पहले भोग, पीछे दण्ड है---ये भोग संगकारक हैं । इन्द्रिय के विषय विकार के हेतु हैं किन्तु वे राग-द्वेष को उत्पन्न या नष्ट नहीं करते। जो रक्त और द्विष्ट होता है, वह उनका संयोग पाविकारी बन जाता है | ब्रह्मचर्य की सुरक्षा के लिए विकार के हेतु वर्जनीय हैं। ब्रह्मचारी की चर्या यूँ होनी चाहिए :
( १ ) एकान्त वास विकार-वर्धक सामग्री से दूर रहना । (२) कथा - संयम - कामोत्तेजक वार्तालाप से दूर रहना । (३) परिचय - संयम - कामोत्तेजक सम्पर्कों से बचना । (४) दृष्टि- संयम - दृष्टि के विकार से बचना
(५) श्रुति-संयम - कर्ण-विकार पैदा करनेवाले शब्दों से बचना । (६) स्मृति-संयम - पहले भोगे हुए भोगों की याद न करना । (७) रस- संयम --- पुष्ट - हेतु के बिना सरस पदार्थ न खाना ।
(८) अति भोजन-संयम ( मिताहार ) - मात्रा और संख्या में कम
: लाया, बार-बार न खावा, जीवन-निर्वाह मात्र खाना ।