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________________ २९९] जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व गुणस्थान विशुद्धि के तरतम भाव की अपेक्षा जीवों के चौदह स्थान (भूमिकाएं) बतलाएं हैं। उनमें सम्यग् दर्शन चौथी भूमिका है। उत्क्रान्ति का आदि बिन्दु होने के कारण इसे साधना की पहली भूमिका भी माना जा सकता है। ___पहली तीन भूमिकाओं में प्रथम भूमिका (पहले गुणस्थान ) के तीन रूप बनते हैं-(१) अनादि-अनन्त (२) अनादि-सान्त (३) सादि सान्त। प्रथम रूप के अधिकारी अभव्य या जाति-भव्य (कभी भी मुक्त न होने वाले ) जीव होते हैं। दूसरा रूप उनकी अपेक्षा से बनता है जो अनादिकालीन मिथ्यादर्शन की गांठ को तोड़कर सम्यग् दर्शनी बन जाते हैं। सम्यक्त्वी बन फिर से मिथ्यात्वी हो जाते हैं और फिर सम्यक्त्वी-ऐसे जीवों की अपेक्षा से तीसरा रूप बनता है। पहला गुणस्थान उत्क्रान्ति का नहीं है। इस दशा में शील की देश आराधना हो सकती है 3 । शील और श्रुत दोनों की आराधना नहीं, इसलिए सर्वाराधना की दृष्टि से यह अपक्रान्ति-स्थान है। मिथ्या दर्शनी व्यक्ति में भी विशुद्धि होती है। ऐसा कोई जीव नहीं जिसमें कर्मविलयजन्य (न्यूनाधिक रूप में ) विशुद्धि का अंश न मिले। उस (मिथ्या दृष्टि ) का जो विशुद्धि-स्थान है, उसका नाम मिथ्या, 'दृष्टि गुणस्थान' मिथ्या दृष्टि के (१) ज्ञानावरण कर्म का विलय (क्षयोपशम ) होता है, अतः वह यथार्थ जानता भी है, (२) दर्शनावरण का विलय होता है अतः वह इन्द्रिय-विषयों का यथार्थ ग्रहण भी करता है; (३) मोह का विलय होता है अतः वह सत्यांश का श्रद्धान और चारित्रांश-तपस्या भी करता है। मोक्ष या श्रात्म-शोधन के लिए प्रयत्न भी करता है ५ । (४) अन्तराय कर्म का विलय होता है, अतः वह यथार्थ-ग्रहण (इन्द्रिय मन के विषय का साक्षात् ), यथार्य गृहीत का यथार्थ शान (अवग्रह आदि के द्वारा निर्णय तक पहुँचना ) उसके ( यथार्थ ज्ञान ) प्रति श्रद्धा और श्रदेय का आचरण-इन सब के लिए प्रयत्न करता है-श्रात्मा को लगाता है। यह सब उसका विशुद्धि-स्थान है। इसलिए मिथ्यात्री को 'सुवती" और 'कर्म-सत्य' कहा गया है। इनकी
SR No.010093
Book TitleJain Darshan ke Maulik Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Chhaganlal Shastri
PublisherMotilal Bengani Charitable Trust Calcutta
Publication Year1990
Total Pages543
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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