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- जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व
अयोग-दशा प्रक्रिया की स्थिति है ! इसके बाद साधना शेष नहीं रहती। फिर सिद्ध-बुद्ध-मुक्त और निर्वाण-दशा हो जाती है। साधना का विध
साधना में बाधा डालने वाला मोह-कर्म है। उसके दो रूप हैं (१) दर्शनमोह (२) चारित्र-मोह। पहला रूप सम्यग् दर्शन में बाधक बनता है, दूसरा चारित्र में।
दर्शन-मोह के तीन प्रकार हैं
(१) सम्यक्त्व-मोह, (२) मिथ्यात्व-मोह, (३) मिश्र (सम्यक्मिथ्यात्व ) मोह।
चारित्र-मोह के पञ्चीस प्रकार हैसोलह कषाय :
अनन्तानुवन्धी-क्रोध, मान, माया, लोभ । प्रत्याख्यानी-क्रोध, मान, माया, लोम । अप्रत्याख्यानी-क्रोध, मान, माया, लोभ ।
संज्वलन-क्रोध, मान, माया, लोभ। ' नी नो-कषाय
(१७) हास्य (१८) रति (१६) अरति (२०) भय (२१) शोक (२२) जुगुप्सा (२३) स्त्री-वेद (२४) पुरुष-वेद ( २५) नपुंसक-वेद ।
जब तक दर्शन-मोह के तीन प्रकार और चारित्र-मोह के प्रथम चतुष्क (अनन्तानुबन्ध) का अत्यन्त विलय (क्षायिक भाव) नहीं होता, तब तक सम्यग् दर्शन (क्षायिक सम्यक्त्व ) का प्रकाश नहीं मिलता। सत्य के प्रति सतत् जागरूकता नहीं आती। इन सात प्रकृतियों ( दर्शन-ससक ) का विलय होने पर साधना की पहली मंजिल तय होती है।
सम्यग दर्शन साधना का मूल है। "प्रदर्शनी (सम्यग् दर्शन रहित) शान नहीं पाता । शान के बिना चरित्र, चरित्र के बिना मोक्ष, मोक्ष के बिना निर्वाण-शाश्वत शान्ति का लाभ नहीं होता।"