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जैन दर्शन के मौलिक तत्व
१५ मार्गानुसारी क्रिया का अनुमोदन करते हुए उपाध्याय विनय विजयजी ने लिखा है
"मिथ्याशामप्युपकारसारं, संतोषसत्यादि गुणप्रसारम् । वदान्यता वैनयिकप्रकारं, मार्गानुसारीत्यनुमोदयामः ॥" भुत की न्यूनता के कारण इनके प्रत्याख्यान (विरति ) को दुष्प्रत्याख्यान भी बताया है।
गौतम ने भगवान से पूछा-भगवन् ! सर्व प्राण, सर्वभूत, सर्वजीव और सर्व सत्व को मारने का कोई प्रत्याख्यान करता है, वह सुप्रत्याख्यात है या दुष्प्रत्याख्यात ?
भगवान् ने कहा-गौतम ? सुपत्याख्यात भी होता है और दुष्पत्याख्यात भी?
गौतम--यह कैसे भगवन् ?
भगवान् गौतम ! सर्वजीव यावत् सर्वसत्व को मारने का प्रत्याख्यान करने वाला नहीं जानता कि ये जीव हैं, ये अजीव हैं, ये त्रस हैं, ये स्थावर है। उसका प्रत्याख्यात दुष्प्रत्याख्यात होता है और सब जीवों को जाने बिना "सब को मारने का प्रत्याख्यान है" यूं बोला जाता है; वह असत्य भाषा है ...............।
"..................जो व्यक्ति जीव अजीव, स-स्थावर को जानता है और वह सर्वजीव यावत् सर्व सत्व को मारने का प्रत्याख्यान करता है उसका प्रत्याख्यात सुप्रत्याख्यात होता है और उसका वैसा बोलना सत्य भाषा है।" इस प्रकार प्रत्याख्यान दुष्प्रत्याख्यात भी होता है और सुप्रत्याख्यात भी।
इसका तात्पर्य यह है कि सब जीवों को जाने बिना जो व्यक्ति सब जीवों की हिंसा का त्याग करता है, वह त्याग पूरा अर्थ नहीं रखता। किन्तु वह जितनी दूर तक जानकारी रखता है, हेय को छोड़ता है, वह चारित्र की देशआराधना है। इसीलिए पहले गुणस्थान के अधिकारी को मोक्ष-मार्ग का देशभाराधक कहा गया है ।
दूसरा गुण स्थान (सास्वादन-सम्यग् दृष्टि) अपक्रमण-दशा है। सम्यगदर्शनी (औपमिक-सम्यक्त्वी) दर्शन-मोह के उदय से मिथ्या-दर्शनी