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. जैन दर्शन के मौलिक तस् । २६१. . परिस्थिति की मर्यादाएँ, वह जो है उससे भी उसे और अधिक बना देती है। इसीलिए पारमार्थिक जगत् में जो व्यक्तिवादी होता है, वह व्यावहारिक जगत् में समष्टिवादी बन जाता है।
निश्चय-दृष्टि के अनुसार समूह अारोपवाद या कल्पनावाद है। शान वैयक्तिक होता है। अनुभूति वैयक्तिक होती है। संज्ञा और प्रशा वैयक्तिक होती है। जन्म-मृत्यु वैयक्तिक है। एक का किया हुआ कर्म दूसरा नहीं भोगता । सुख-दुःख का संवेदन भी वैयक्तिक है ।
सामूहिक अनुभूतियाँ कल्पित होती हैं। वे सहजतया जीवन में उतर नहीं आती। जिस समूह-परिवार, समाज या राष्ट्र से सम्बन्धों की कल्पना जुड़ जाती हैं, उसी की स्थिति का मन पर प्रभाव होता है। यह मान्यता मात्र है। उनकी स्थिति ज्ञात होती है, तब मन उससे प्रभावित होता है । अशात दशा में उनपर कुछ भी बीते मन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। शत्रु जैसे मान्यता की वस्तु है, वैसे मित्र भी। शत्रु की हानि से प्रमोद और मित्र की हानि से दुःख, शत्रु के लाभ से दुःख और मित्र के लाभ से प्रमोद जो होता है, वह मान्यता से आगे कुछ भी नहीं है। व्यक्ति स्वयं अपना शत्रु है और स्वयं अपना मित्र ।
निश्चय-दृष्टि उपादान प्रधान है। उसमें पदार्थ के शुद्ध रूप का ही प्ररूपण होता है। व्यवहार की दृष्टि स्थूल है। इसलिए वह पदार्थ के सभी पहलुओं को छूता है। निमित्त को भी पदार्थ से अभिन्न मान लेता है। समूह गत एकता का यही बीज है। इसके अनुसार क्रिया-प्रतिक्रिया सामाजिक होती है। समाज से अलग रहकर कोई व्यक्ति जी नहीं सकता। समाज के प्रति जो व्यक्ति अनुत्तरदायी होता है, वह अपने कर्तव्यों को नहीं निभा सकता। इसमें परिवार, समाज और राष्ट्र के साथ जुड़ने की, संवेदनशीलता की बात होती है।
जैन-दर्शन का मर्म नहीं जानने वाले इसे नितान्त व्यक्तिवादी बताते हैं। पर यह सर्वथा सच नहीं है। वह अध्यात्म के क्षेत्र में व्यक्ति के व्यक्तिवादी
होने का समर्थन करता है किन्तु व्यवहारिक क्षेत्र में समष्टिवाद की मर्यादाओं ... का निषेध नहीं करता। निश्चय-दृष्टि से वह कर्तृत्व-भोक्तृत्व को प्रात्म