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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्वं निष्ठ ही स्वीकार करता है, इसीलिए प्राचार्य कुन्दकुन्द ने बाह्य साधना-शील आत्मा को पर-समयरत कहा है ।
औपचारिक कर्तृत्व-भोक्तृत्व को परनिष्ठ मानने के लिए बह अनुदार भी नहीं है। इसीलिए-'सिद्ध मुझे सिद्धि दे'-ऐसी प्रार्थनाएँ की जाती है ।
प्राणीमात्र के प्रति, केवल मानव के प्रति ही नहीं, आत्म-तुल्य दृष्टि और किसी को भी कष्ट न देने की वृत्ति आध्यात्मिक संवेदनशीलता और सौभात्र है। इसी में से प्राणी की असीमता का विकास होता है।