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________________ २९०.] जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व नाश होने पर फिर उसका बन्ध नहीं होता। कर्म का लेप सकर्म के होता है। अकर्म कर्म से लिप्त नहीं होता। श्वरई __जैन ईश्वर वादी नहीं-बहुतों की ऐमी धारणा. है। बात ऐसी नहीं है। जैन दर्शन ईश्वरवादी अवश्य है, ईश्वरक त्ववादी नहीं । ईश्वर का अस्वीकार अपने पूर्ण-विकास-चरम लक्ष्य (मोक्ष) का अस्वीकार है। मोक्ष का अस्वीकार अपनी पवित्रता (धर्म) का अस्वीकार है। अपनी पवित्रता का अस्वीकार अपने आप (आत्मा) का अस्वीकार है । आत्मा साधक है। धर्म साधन है। ईश्वर साध्य है । प्रत्येक मुक्त श्रात्मा ईश्वर हैं। मुक्त आत्माएँ अनन्त हैं, इसलिए ईश्वर अनन्त हैं। एक ईश्वर कर्ता और महान् , दुसरी मुक्तात्माएँ अकर्ता और इसलिए अमहान् की वे उस महान् ईश्वर में लीन हो जाती हैं-यह स्वरूप और कार्य की भिन्नता निरुपाधिक दशा में हो नहीं सकती। मुक्त आत्माओं की स्वतन्त्र सत्ता को इसलिए अस्वीकार करने वाले कि स्वतन्त्र सत्ता मानने पर मोक्ष में भी भेद रह जाता है, एक निरूपाधिक सत्ता को अपने में विलीन करने वाली और दूसरी निरूपाधिक सत्ता को उसमें विलीन होने वाली मानते हैं क्या यह निर्-हेतुक भेद नहीं ? मुक्त दशा में समान विकासशील प्रत्येक आत्मा की स्वतन्त्र सत्ता का स्वीकार वस्तु-स्थिति का स्वीकार है। अनन्त शान, अनन्त दर्शन, अनन्त वीर्य, अनन्त आनन्द-यह मुक्त श्रात्मा का स्वरूप या ऐश्वर्य है । यह सबमें समान होता है। अारमा सोपाधिक (शरीर और कर्म की उपाधि सहित) होती है, तब उसमें पर भाव का कतृत्व होता है । मुक्त-दशा निरूपाधिक है। उसमें केवल स्वभाव-रमण होता है, पर-भाव-कतृत्व नहीं। इसलिए ईश्वर में कस् त्व का आरोप करना उचित नहीं। व्यक्तिवाद और समष्टिवाद प्रत्येक व्यक्ति जीवन के प्रारम्भ में श्रवादी होता है। किन्तु बालोचना के क्षेत्र में वह आता है त्योंही बाद उसके पीछे लग जाते हैं। वास्तव में यह वही है, जो शक्तियां उसका अस्तित्व बनाए हुए है। किन्तु देश, काल और
SR No.010093
Book TitleJain Darshan ke Maulik Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Chhaganlal Shastri
PublisherMotilal Bengani Charitable Trust Calcutta
Publication Year1990
Total Pages543
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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