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२०६१
जैन दर्शन के मौलिक तत्त्वं
परति ( अनिवृत्ति या अविरति ) है । ज्ञान का क्रम आगे बढ़ा। व्यथा का मूल कारण क्रिया समूह जान लिया गया ।
(२) श्राधिकरणिकी यह अधिकरण-शस्त्र के योग से होने वाली प्रवृत्ति है। इसके दो रूप है– (१) शस्त्र-निर्माण (२) शस्त्र - संयोग । शस्त्र का 'अर्थ केवल आयुध ही नहीं है। जीव-बध का जो साधन है, वही शस्त्र है । (३) प्राद्वं षकी :----) - प्रद्वेष जीव और जीव दोनों पर हो सकता है। इस लिए इसके दो रूप बनते हैं - (१) जीव- प्राद्वेषिकी (२) अजीव प्राद्वेषिकी । (४) परिताप ( सुख की उदीरणा ) स्वयं देना और दूसरों से दिलाना'पारितानिकी' है ।
(५) प्राण का अतिपात ( बियोग ) स्वयं करना और दूसरों से करवाना 'प्राणातिपातिकी' है ।
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इस प्रकरण में एक महत्त्वपूर्ण गवेषणा हुई वह है प्राणातिपात से हिंसा के पार्थक्य का ज्ञान । परितापन और प्राणातिपात — ये दोनों जीव से संबंधित हैं। हिंसा का संबंध जीव और अजीव दोनों से हैं। यही कारण है कि जैसे प्राद्वेषिकी का जीव और जीव दोनों के साथ संबंध दरताया है, वैसे इनका
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नहीं । द्वेप जीव के प्रति भी हो सकता है किन्तु अजीव के परिताप और प्राणातिपात ये नहीं किये जा सकते। प्राणातिपात का विषय छह जीवनिकाय है ५३ ।
प्राणातिपात हिंसा है किन्तु हिंसा उसके अतिरिक्त भी है । असत्य वचन, अदत्तादान, ब्रह्मचर्य और परिग्रह भी हिंसा है। इन सब में प्राणातिपात का नियम नहीं है। विषय मीमांसा के अनुसार मृषावाद का विषय सब द्रव्य है ५४ । अदत्तादान का विषय ग्रहण और धारण करने योग्य द्रव्य है ५५ । श्रादान ग्रहण ( धारण ) योग्य वस्तु का ही हो सकता है, शेष का नहीं । ब्रह्मचर्य का विषय रूप और रूप के सहकारी द्रव्य है ५४ | परिग्रह का विषय 'सब द्रव्य' हैं ५७ | परिग्रह का अर्थ है मूर्छा या ममत्व | वह प्रति लोभ के कारण सर्व वस्तु विषयक हो सकता है
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ये पांच आसन है। इनके परित्याग का अर्थ है 'अहिंसा' । वह महाव्रत है । (१) प्राणातिपात विरमण (२) भूषाबाद- बिरमण (३) श्रदत्तादान- विरमण