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________________ जैन दर्शन के मौलिक तत्व [ २७ परिग्रह - विरमण - ये पाँच संबर है। आतण (४) अब्रह्मचर्य - विरमण (५) क्रिया है । वह 'संसार' ( जन्म-मरण - परम्परा ) का कारण है । संवर अक्रिया 1 है। वह मोक्ष का कारण है ५८ । . सारांश यह है - क्रिया से निवृत होना, अक्रिया की ओर बढ़ना ही मोमुखता है । इसलिए भगवान् महावीर ने कहा है- 'वीर पुरुष अहिंसा के राजपथ पर चल पड़े हैं ५९ । यह प्राणातिपात विरमण से अधिक व्यापक है । (१) आरम्भिकी की क्रिया-जीव और अजीव दोनों के प्रति होने वाली हिंसक प्रवृत्ति | (२) प्रातीत्थिकी क्रिया- जीव और जीव दोनों के हेतु से उत्पन्न होने बाली रागात्मक और द्वेषात्मक प्रवृत्ति „ 1 यह हिंसा का स्वरूप है, जो अजीव से भी संबंधित है। अजीव के प्राण नहीं होते, इसलिए प्राणातिपात क्रिया जीव-निमितक होती है। हिंसा अजीब निमित्तक भी हो सकती है। हिंसा का अभाव 'अहिंसा' है। इस प्रकार after ita और जीव दोनों से संबंधित है। अतएव वह समता है। वह वस्तु स्वभाव को मिटा साम्य नहीं लाती, उससे सहज वैषम्य का अन्त भी नहीं होता किन्तु जीव और अजीव के प्रति वैषम्य वृत्ति न रहे, वह साम्य-योग है। जो कोई व्यक्ति स्वार्थ या परार्थ ( अपने लिए या दूसरों के लिए ) सार्थक या अनर्थक ( किसी अर्थ -सिद्धि के लिए या निर्थक ) जानबूझकर या अन जान में, जागता हुआ या सोता हुआ, क्रिया-परिणत होता है या क्रिया से निवृत्त नहीं होता, वह कर्म से लिप्त होता है। इस स्थिति को स्पष्ट करने के लिए - (१) सामन्तोपनिपातिकी (२) अर्थ दण्ड- अनर्थ दण्ड (३) अनाभोग: प्रत्यय आदि अनेक क्रियाओं का निरूपण हुआ १२ 1 जैन दर्शन में क्रियावाद आस्तिक्यवाद के अर्थ में और अक्रियाबाद स्वाद के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है "। वह इससे भिन्न है । यह सारी चर्चा प्रवृत्ति और निवृत्ति को लिए हुए है। 'प्रवृत्ति से प्रत्यावर्तन और निवृति से नियंतन होता है यह तत्त्व न्यूनाधिक मात्रा में मात्रः सभी मोक्षवादी
SR No.010093
Book TitleJain Darshan ke Maulik Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Chhaganlal Shastri
PublisherMotilal Bengani Charitable Trust Calcutta
Publication Year1990
Total Pages543
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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