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________________ जैन दर्शन के मौलिक तस्व साधना के पहले चरण में ही सारी क्रियाओं का त्याग शक्य नहीं है। . मुमुक्षु भी साधना की पूर्व भूमिकाओं में क्रिया-प्रवृत्त रहता है। किन्तु उसका लक्ष्य प्रक्रिया ही होता है, इसलिए वह कुछ भी न बोले, अगर बोलना आवश्यक हो तो वह भाषा-समिति (दोष-रहित पद्धति) से बोले । वह चिन्तन न करे, अगर उसके बिना न रह सके तो आत्महित की बात ही सोचे-धर्म और शुक्ल ध्यान ही ध्याए । वह कुछ भी न करे, अगर किये बिना न रह सके तो वही करे जो साध्य से पर न ले जाए। यह क्रिया-शोधन का प्रकरण है। इस चिन्तन ने संयम, चरित्र, प्रत्याख्यान आदि साधनों को जन्म दिया और उनका विकास किया। प्रत्याख्यातव्य (त्यक्तव्य ) क्या है ! इस अन्वेषण का नवनीत रहा'क्रियावाद' । उसकी रूप रेखा यं है-क्रिया का अर्थ है कर्मबन्धा-कारक " कार्य अथवा अप्रत्याख्यानजन्य (प्रत्याख्यान नहीं किया हुआ है उस सूक्ष्म वृत्ति से होने वाला) कर्मवन्ध । वे क्रियाएं पांच है-(१) कायिकी (२) श्राधिकरणिकी (३) प्रादेषिकी ( ४ ) पारितापनिकी (५) प्राणातिपातिकी । (१) कायिकी (शरीर से होने वाली क्रिया) दो प्रकार की है(क) अनुपरता (ख) दुष्पयुक्ता ५११ शरीर की दुष्प्रवृत्ति सतत नहीं होती। निरन्तर जीवों को मारने वाला वधक शायद ही मिले । निरन्तर असत्य बोलने वाला और बुरा मन बर्ताने वाला भी नहीं मिलेगा किन्तु उनकी अनुपरति (अनिवृत्ति)नरंतरिक होती है । दुपयोग अव्यक्त अनुपरति का ही व्यक्त परिणाम है। अनुपरति जागरण और निद्रा दोनों दशाओं में समान रूप होती है। इसे समझे बिना प्रात्म-साधना का लक्ष्य पूरवनीं रहता है। इसी को लक्ष्य कर भगवान महावीर ने कहा है'अविरत जागता हुआ भी सोता है । विरत सोता हुआ भी जागता है ५११ मनुष्य शारीरिक और मानसिक व्यथा से सार्वदिक मुक्ति पाने चला, तब उसे पहले पहल दुष्प्रवृत्ति छोड़ने की बात सूझी। आगे जाने की बात संभवतः उसने नहीं सोची। किन्तु अन्वेषण की गति अबाध होती है। शोध करते-करते उसने जाना कि प्रथा का मूल दुष्प्रवृत्ति नहीं किन्तु उसकी अनु
SR No.010093
Book TitleJain Darshan ke Maulik Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Chhaganlal Shastri
PublisherMotilal Bengani Charitable Trust Calcutta
Publication Year1990
Total Pages543
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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