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१८] - जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व आत्मा में कतृत्व शक्ति है, उसीसे वह कर्म नहीं करती; किन्तु उसके पीछे राग-देष, स्वत्व-परत्व की प्रबल प्रेरणा होती है। पूर्व कर्म-जनित बेग से मात्मा पूर्णतया दबती नहीं तो सब जगह उसे टाल भी नहीं सकती। एक बुरा कर्म आगे के लिए भी आत्मा में बुरी प्रेरणा छोड़ देता है। भोक्तृत्व शक्ति की भी यही बात है। आत्मा में बुरा फल भोगने की चाह नहीं होती पर बुरा या भला फल चाह के अनुसार नहीं मिलता, वह पहले की क्रिया के अनुसार मिलता है। क्रिया की प्रतिक्रिया होती है-यह स्वाभाविक बात है। विष खाने वाला यह न चाहे कि मैं मलें, फिर भी उसकी मौत टल नहीं मकती। कारण कि विप की क्रिया उसकी इच्छा पर निर्भर नहीं है, वह उसे खाने की क्रिया पर निर्भर है। विस्तार से आगे पढ़िए । दो प्रवाह
ज्ञान का अंश यत्किंचित् मात्रा में प्राणी-मात्र में मिलता है। मनुष्य सर्वोत्कृष्ट प्राणी हैं। उनमें बौद्धिक विकास अधिक होता है। बुद्धि का काम है सोचना, समझना, तत्त्व का अन्वेषण करना। उन्होंने सोचा, समझा, तत्त्व का अन्वेषण किया। उसमें से दो विचार प्रवाह निकले-क्रियावाद और अक्रियावाद। ___ आत्मा, कर्म, पुनर्जन्म, मोक्ष पर विश्वास करने वाले "क्रियावादी' और इन पर विश्वाम नहीं करने वाले अक्रियावादी" कहलाए। क्रियावादी वर्ग ने संयमपूर्वक जीवन बिताने का, धर्माचरण करने का उपदेश दिया और अक्रियावादी वर्ग ने सुखपूर्वक जीवन बिताने को ही परमार्थ बतलाया। क्रियावादियाँ ने-“देहे दुक्खं महाफलं." "अत्तहियं खु दुहेण लब्भई "" शारीरिक कष्टों को समभाव से सहना महाफल है। “आत्महित कष्ट सहने से सघता है"-ऐसे वाक्यों की रचना की ओर अक्रियावादियों के मन्तव्य के आधार पर-"यावज्जीवेत् सुखं जीवेत्, ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत्"-जैसी युकियों का सर्जन हुआ। क्रियावादी वर्ग ने कहा-"जो रात या दिन चला जाता है, वह फिर वापिस नहीं आता १ अधर्म करने वाले के रात-दिन निष्फल होते हैं, धर्मनिष्ठ व्यक्ति के वे सफल होते हैं।