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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व
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एकात्म्य संयोग होता है, इसलिए शरीर से किसी वस्तु का स्पर्श होने पर श्रात्मा में संवेदन और कर्म का विपाक होता है ।
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(४) एक जीव की स्थिति दूसरे जीव से भिन्न है---विचित्र है उसका कारण कर्म अवश्य है किन्तु केवल कर्म ही नहीं। उसके अतिरिक्त काल, स्वभाव, नियति । उद्योग आदि अनेक तत्त्व है। कर्म दो प्रकार का होता है :सोपक्रम और निरूपक्रम अथवा सापेक्ष और निरपेक्ष"। फल-काल में कई कर्म बाहरी स्थितियों की अपेक्षा नहीं रखते और कई रखते है, कई कर्म विपाक के अनुकूल सामग्री मिलने पर फल देते हैं और कई उनके बिना भी । कर्मोदय अनेक वध होता है, इसलिए कर्मवाद का साम्यवाद से विरोध नहीं है। कमोंदय की सामग्री समान होने पर प्राणियों की स्थिति बहुत कुछ ममान हो सकती है, होती भी है। जैन सूत्रों में कल्यातीत देवताओं की
मान स्थिति का जो वर्णन है, वह श्राज के इस साम्यवाद से कही अधिक रोमाञ्चकारी है। कल्पातीत देवों की ऋऋद्धि, युति, यश, बल, अनुभव, सुख समान होता है, उनमें न कोई खामी होता है और न कोई सेवक और न कोई पुरोहित, वे सब अहमिन्द्र- स्वयं इन्द्र है०४ । अनेक देशों में तथा समूचे भूभाग में भी यदि खान-पान, रहन-सहन, रीति-रिवाज समान हो जाएं, स्वामी सेवक का भेदभाव मिट जाए, राज्य सत्ता जैसी कोई केन्द्रित शक्ति न रहे तो उससे कर्मवाद की स्थिति में कोई आंच नहीं श्राती । रोटी की सुलभता से ही विषमता नहीं मिटती । प्राणियों में विविध प्रकार की गति, जाति, शरीर, अङ्गोपाङ्ग सम्बन्धी विसदृशता है । उसका कारण उनके अपने विचित्र कर्म ही हैं। एक पशु है तो एक मनुष्य, एक दो इन्द्रियवाला कृमि है तो एक पांच इन्द्रियवाला मनुष्य ! यह विषमता क्यों ? इसका कारण स्वोपार्जित कर्म के अतिरिक्त और कुछ नहीं हो सकता ।
मुक्त श्रात्माएं कर्म की कर्त्ता, भोक्ता कुछ भी नहीं है। बद्ध आत्माएं कर्म करती हैं और उनका फल भोगती हैं। उनके कर्म का प्रवाह अनादि है और वह कर्म- मूल नष्ट न होने तक चलता रहता है। आत्मा स्वयं कर्ता भोक्ता होकर भी, जिन कर्मों का फल अनिष्ट हो, वैसे कर्म क्यों करें और कर भी लें तो उनका अनिष्ट फल स्वयं क्यों भोगे ! इस प्रश्न के मूल में ही भूल है ।
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