________________
१६]
जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व
( ४ ) जीवों की विचित्रता कर्म-कृत है तो साम्यवाद कैसे ? यदि वह अन्यकृत है तो कर्मबाद क्यों ?
( ५ ) कर्म का कर्ता और भोक्ता यदि जीव ही है तो बुरे कर्म और उसके फल का उपभोग कैसे ? यदि जीव कर्ता-भोक्ता नहीं है तो कर्म और कर्म फल से उसका सम्बन्ध कैसे ? इन सबका समाधान करने के लिए अनेकान्त दृष्टि श्रावश्यक है। एकान्त दृष्टि के एकांगी विचारों से इनका विरोध नहीं मिट
सकता ।
1
( १ ) लोक शाश्वत भी है और प्रशाश्वत भी । काल की अपेक्षा लोक शाश्वत है 1 ऐसा कोई काल नहीं, जिसमें लोक का अस्तित्व न मिले त्रिकाल में वह एक रूप नहीं रहता, इसलिए वह अशाश्वत भी है। जो एकान्ततः शाश्वत होता है, उसमें परिवर्तन नहीं हो सकता, इसलिए वह अशाश्वत है। जो एकान्ततः अशाश्वत होता है, उसमें अन्वयी सम्बन्ध नहीं हो सकता। पहले क्षण में होनेवाला लोक दूसरे क्षण अत्यन्त उच्छिन्न हो जाए तो फिर 'वर्तमान' के अतिरिक्त अतीत, अनागत आदि का भेद नहीं घटता । कोई ध्रुव पदार्थ हो - त्रिकाल में टिका रहे, तभी वह था, है और रहेगा - यों कहा जा सकता है । पदार्थ यदि क्षण -विनाशी ही हो तो अतीत और अनागत के भेद का कोई आधार ही नहीं रहता । इसीलिए विभिन्न पर्यायों की अपेक्षा 'लोक शाश्वत है' यह माने बिना भी स्थिति स्पष्ट नहीं होती ।
(२) श्रात्मा के लिए भी यही बात है। वह शाश्वत और अशाश्वत दोनों है :- द्रव्यत्व की दृष्टि से शाश्वत है- ( श्रात्मा पूर्व और उत्तर सभी क्षणों में रहता है, अन्वयी है, चैतन्य पर्यायों का संकलन कसां है ) पर्याय की दृष्टि से अशाश्वत है ( विभिन्न रूपों में एक शरीर से दूसरे शरीर में, एक अवस्था से दूसरी अवस्था में उसका परिणमन होता है )
(३) श्रात्मा शरीर से भिन्न भी है और अभिन्न भी । स्वरूप की दृष्टि से भिन्न है और संयोग एवं उपकार की दृष्टि से अभिन्न । श्रात्मा का स्वरूप चैतन्य है, शरीर का स्वरूप जड़, इसलिए ये दोनों भिन्न है । संसारावस्था में खात्मा और शरीर का वृक्ष पानी की तरह, लोह अग्नि-पिंड की तरह