________________
.जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व . [१५ अशुद्ध दशा में प्रात्मा के शान और शक्ति जो श्रावृत्त होते हैं, वे शुद्ध दशा में पूर्ण विकसित हो जाते हैं। ___सत्य की शोष' यह भी जैन दर्शन का ध्येय है किन्त केवल सत्य की शोध ही, यह नहीं है। प्राध्यात्मिक दृष्टि से वही सत्य सत्य है, जो प्रात्मा को अशुद्ध या अनुन्नत दशा से शुद्ध या उन्नत दशा में परिवर्तित करने के लिए उपयुक्त होता है। मार्क्स ने जो कहा-"दार्शनिकों ने जगत् को विविध प्रकार से समझने का प्रयन किया है किन्तु उसे बदलने का नहीं।" यह सर्वात सुन्दर नहीं है। परिवर्तन के प्रति दो दृष्टि बिन्दु हैं-बाह्य और
आन्तरिक । भारतीय दर्शन आन्तरिक परिवर्तन को मुख्य मानकर चले हैं। उनका अभिमत यह रहा है कि आध्यात्मिक परिवर्तन होने पर बाहरी परिवर्तन अपने आप हो जाता है। अभ्युदय उनका साध्य नहीं, वह केवल जीवन-निर्वाह का साधन मात्र रहा है। मार्स जैसे व्यक्ति, जो केवल बाहरी परिवर्तन को ही साध्य मानकर चले, का परिवर्तन सम्बन्धी दृष्टिकोण भिन्न है, यह दूसरी बात है। जैन-दृष्टि के अनुसार बाहरी परिवर्तन से क्वचित् अान्तरिक परिवर्तन सुलभ हो सकता है किन्तु उससे अात्म मुक्ति का द्वार नहीं खुलता, इसलिए वह मोक्ष के लिए मूल्यवान् नहीं है। समस्या और समाधान
लोक शाश्वत है या अशाश्वत ? आत्मा शाश्वत है या प्रशाश्वत ! आत्मा शरीर से भिन्न है या अभिन्न ? जीवों में जो भेद है, यह कर्मकृत है या अन्यकृत ! कर्म का कर्ता और भोक्ता स्वयं जीव है या अन्य कोई ? आदि-आदि अनेक समस्याएं हैं, जो मनुष्य को संदिग्ध किये रहती हैं।
(१) लोक शाश्वत है तो विनाश और परिवर्तन कैसे ? यदि वह अशाश्वत है तो मैद-अतीत, अनागत, नवीन, पुरातन आदि-आदि कैसे !
(२) आत्मा शाश्वत है तो मृत्यु कैसे ! यदि अशाश्वत है तो विभिन्न चैतन्य-सन्तानों की एकात्मकता कैसे ?
(३) आत्मा शरीर से भिन्न है वो शरीर में सुख-दुःख की अनुभूति कैसे! यदि यह शरीर से अमिन्न है तो शरीर और मामा-ये दो पदार्थ