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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व
जैन दर्शन का आरम्भ _यूनानी दर्शन का प्रारम्भ आश्चर्य से हुआ माना जाता है। यूनानी दार्शनिक अफलातूं प्लेटो का प्रसिद्ध वाक्य है-"दर्शन का उद्भव आश्चर्य से होता है । पश्चिमी दर्शन का उद्गम संशय से हुआ-ऐसी मान्यता है। भारतीय दर्शन का स्रोत है-दुःख की निवृत्ति के उपाय की जिज्ञासा __ जैन दर्शन इसका अपवाद नहीं है। "यह संसार अध्रुव और दुःखबहुल है। वह कौनसा कर्म है, जिसे स्वीकार कर मैं दुर्गति सेबचूं, दुःख-परम्परा से मुक्ति पा सकें।" इस चिन्तन का फल है-आत्मवाद। "आत्मा की जड़ प्रभावित दशा ही दुःख है " "श्रात्मा की शुद्ध दशा ही सुख है " । __ कर्मवाद इसी शोध का परिणाम है। "सुचीर्ण का फल सत् होता है और दुश्चीर्ण कर्म का फल असत् ।"
"अात्मा पर नियंत्रण कर, यही दुःख-मुक्ति का उपाय है।"
इम दुःख निवृत्ति के उपाय ने क्रियावाद को जन्म दिया। इनकी शोध के साथ साथ दूसरे अनेक तत्त्वों का विकास हुआ।
आश्चर्य और संशय भी दर्शन-विकास के निमित्त बनते हैं। जैन स्त्रों में भगवान् महावीर और उनके ज्येष्ठ शिष्य गौतम के प्रश्नोत्तर प्रचुर मात्रा में हैं। गौतम स्वामी ने प्रश्न पूछे, उनके कई कारण बताए हैं। उनमें दो कारण है-“जाय संशए, जाय कोउहल्ले" (भगवती श१) उनको संशय हुआ, कुतूहल हुआ तथा भगवान महावीर से समाधान मांगा, भगवान् महावीर ने उत्तर दिये। ये प्रश्नोत्तर जैन तत्त्व ज्ञान की अमूल्य निधि हैं।
जैन दर्शन का ध्येय . जैन दर्शन का ध्येय है-आध्यात्मिक अनुभव । आध्यात्मिक अनुभव का अर्थ है स्वतन्त्र आत्मा का एकत्व में मिल जाना नहीं, किन्तु अपने स्वतन्त्र भ्यक्तित्व (स्वपूर्णता) का अनुभव करना है।
प्रत्येक आत्मा की स्वतन्त्र सत्ता है और प्रत्येक प्रात्मा अनन्त शक्ति सम्पन्न है। आत्मा और परमात्मा, ये सर्वथा भिन्न-सत्तात्मक तत्त्व नहीं है। अशुद्ध दशा में जो आत्मा होती है, वहीं शुद्ध दशा में परमात्मा बन जाती है।