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.. जैन दर्शन के मौलिक तत्व . .. ११५ इसलिए धर्म करने में एक क्षण मी प्रमाद मत करो । क्योंकि यह जीवन कुश के नोक पर टिकी हुई हिम की बंद के ससान क्षण भंगुर है । यदि इस जीवन को व्यर्थ गँवा दोगे तो फिर दीर्घकाल के बाद मौ मनुष्य-जन्म मिसना बड़ा दुर्लभ है । कर्मों के विपाक बड़े निबिड़ होते हैं। अतः समझो, तुम क्यों नहीं समझते हो? ऐसा सद् विवेक बार बार नहीं मिलता । बीती हुई रात फिर लौटकर नहीं आती और न मानव-जीवन फिर से मिलना सुलम है। जब तक बुढ़ापा न सताए, रोग घेरा न डाले, इन्द्रियां शक्ति-हीन न बनें तब तक धर्म का आचरण कर लोग नहीं तो फिर मृत्यु के समय वैसे ही पश्चताना होगा, जैसे माफ-सुथरे राज-मार्ग को छोड़कर ऊबड़-खाबड़ मार्ग में जाने वाला गाड़ीवान् , रथ की धुरी टूट जाने पर पछताता है ।
अक्रियावादियों ने कहा-"यह सब से बड़ी मूर्खता है कि लोग दृष्ट मुखों को छोड़कर अदृष्ट सुख को पाने की दौड़ में लगे हुए हैं ८५। ये कामभोग हाथ में आये हुए हैं, प्रत्यक्ष हैं, जो पीछे होने वाला है वह न जाने कब क्या होगा ? परलोक किसने देखा है---कौन जानता है कि परलोक है या नहीं | जन-समूह का एक बड़ा भाग सांसारिक सुखों का उपभोग करने में व्यस्त है, तब फिर हम क्यों न करें ? जो दूसरों को होगा वही हम को भी होगा । हे प्रिये ! चिन्ता करने जैसी कोई बात नहीं, खूब खा-पी आनन्द कर जो कुछ कर लेगी, वह तेरा है ८१ मृत्यु के बाद आना-जाना कुछ भी नहीं है। कुछ लोग परलोक के दुःखों का वर्णन कर-कर जनता को प्रास सुखों से विमुख किए देते हैं। पर यह अतात्त्विक है ।" क्रियावाद की विचारधारा में वस्तु स्थिति स्पष्ट हुई, लोगों ने संयम सिखा, त्याग तपस्या को जीवन में उतारा। अक्रियावाद की विचार प्रणाली से वस्तु स्थिति प्रोमल रही। लोग भौतिक सुखों की ओर मुड़े। क्रियावादियों ने कहा-"सुकृत
और दुष्कृत का फल होता है । शुभ कर्मों का फल अच्छा और अशुभ कर्मों का फल बुरा होता है। जीव अपने पाप एवं पुण्य कमों के साथ ही परलोक में उत्पन्न होते हैं। पुण्य और पाप दोनों का क्षय होने से असीम श्रात्म-सुखमय मोक्ष मिलता है । फलस्वरूप लोगों में धर्म रुचि पैदा हुई। अल्प इच्छा, अल्प भारम्भ और अल्प परिग्रह का महत्त्व बढ़ा । अहिंसा, सत्य,