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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व "
कनिक
(३) मोक्ष (४) मोक्ष-हेतु (संवर-निर्जरा)
संक्षेप में दो हैं :-आसव और संबर । इसीलिए काल-कम के प्रवाह में बार-बार यह वाणी मुखरित हुई है।
"आसवो भव हेतुः स्यात् संवरो मोक्षकारणम् ।
इतीयमाईती दृष्टि रन्यदस्याः प्रपञ्चनम् ॥ यही तत्त्व वेदान्त में अविद्या और विद्या शब्द के द्वारा कहा गया है । बौद्ध दर्शन के चार आर्य-सत्य और क्या है ? यही तो हैं :(१) दुःख-हेय (२) समुदय-हेयहेतु (३) मार्ग-हानोपाय या मोक्ष-उपाय। (४) निरोध-हान या मोक्ष।
यही तत्त्व हमें पातञ्जल-योगसूत्र और व्यास-भाष्य में मिलता है। योग-दर्शन भी यही कहता है--विवेकी, के लिए यह संयोग दुःख है और दुःख हेय है । त्रिविध दुःख के थपेड़ों से थका हुआ मनुष्य उसके नाश के लिए जिज्ञासु बनता है।
"नृणामेकोगम्य स्त्वमसि खलु नानापथजुषाम्"-गम्य एक है-उसके मार्ग अनेक । सत्य एक है-शोध-पद्धतियाँ अनेक । सत्य की शोध और सत्य का आचरण धर्म है। सत्य-शोध की संस्थाएं, सम्प्रदाय या समाज हैं। वे धर्म नहीं हैं। सम्प्रदाय अनेक बन गए पर सत्य अनेक नहीं बना। सत्य शुद्ध-नित्य और शाश्वत होता है। साधन के रूप में वह है अहिंसा • और साध्य के रूप में वह मोक्ष है''।
दुःख से सुख की और .. मोक्ष और क्या है ? दुःख से सुख की ओर प्रस्थान और दुःख से मुकि। निर्जरा-श्राम-शुद्धि सुख है। पाप-कर्म दुःख है । भगवान् महावीर की दृष्टि पाप के फल पर नहीं पाप की जड़ पर प्रहार करती है। वे कहते हैं "मूल का बेद करो-काम-भोग क्षण मात्र सुख है बहुत काल तक दुःख देने वाले हैं। यह संसार मोक्ष के विपक्ष है इसलिए ये सुख नहीं है ।