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जैन दर्शन के मौलिक तस्व
निरूपण के हो जाते हैं । संक्षेप में वस्तु के दो रूप है— आशा-गम्य और हेतु-गम्य | आशा- गम्य पदार्थ को आशा सिद्ध कहा जाए और हेतु-गम्य पदार्थ को हेतु सिद्ध, यह कथन - विधि की आराधना है । पदार्थ मात्र को प्राशा- सिद्धया हेतु सिद्ध कहा जाए, यह कथन - विधि की विराधना है' ।
सफल प्ररूपक वही होता है जो हेतु के पक्ष में हेतुवादी और श्रागम पक्ष में श्रागम - बादी रहें
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ज्ञान का फल चारित्र है या यों कहिए कि ज्ञान चारित्र के लिए है। मूल वस्तु सम्यग् दर्शन है जो सम्यग् दर्शनी नहीं, वह ज्ञानी नहीं होता । ज्ञान के बिना चरण गुण नहीं आते। अगुणी को मोक्ष नहीं मिलता मोक्ष के बिना निर्वाण ( स्वरूप-लाभ या श्रात्यन्तिक शान्ति ) नहीं होती ३ ।
वह ज्ञान मिथ्या है, जो क्रिया या आचरण के लिए न हो। वह तर्क शुष्क है, जो अभिनिवेश के लिए आये । चारित्र से पहले ज्ञान का जो स्थान है, वह चारित्र की विशुद्धि के लिए ही है ।
क्रियावाद का निरूपण वही कर सकता है, जो श्रात्मा को जानता है, लोक को जानता है, गति श्रागति को जानता है, शाश्वत और अशाश्वत को जानता है, जन्म-मृत्यु को जानता है । श्राखव और संवर को जानता है, दुःख और निर्जरा को जानता है ।
क्रियावाद शब्द श्रात्म दृष्टि का प्रतीक है। ज्ञान श्रात्मा का स्वरूप है । वह संसार दशा में श्रावृत रहता है। उसकी शुद्धि के लिए क्रिया या चारित्र है । चारित्र साधन है, साध्य है, आत्म-स्वरूप का प्रादुर्भाव । साध्य की दृष्टि से ज्ञान का स्थान पहला है और चारित्र का दूसरा । साधन की दृष्टि से चारित्र का स्थान पहला है और ज्ञान का दूसरा । जब शुद्धि की प्रक्रिया चलती है, तब साधन की अपेक्षा प्रमुख रहती है। यही कारण है-द्रव्यानुयोग से पहले चरण करणानुयोग की योजना हुई है । दर्शन
धर्म मूलक दर्शन का विचार चार प्रश्नों पर चलता है । (१) बन्ध
(२) बन्धहेतु (आव)